मेरा अपना इसमें कुछ भी नहीं .........

जो भी कुछ यहाँ लिखा है जिनेन्द्र देव और जैन तीर्थंकरों की वाणी है !

जैन साधुओं व साध्वियों के प्रवचन हैं !!

सभी को इसे Copy/Share करने की स्वतंत्रता है !

कोई कापीराइट नहीं ..........

Wednesday 29 February 2012

           दुनिया को मैंने नही भोगा ,बल्कि दुनिया के द्वारा मै भोगा गया हूँ !काल को मैंने समाप्त नही किया ,बल्कि काल के द्वारा मुझे समाप्त कर दिया गया है ! दुनिया को मै संतप्त नही कर पाया ,बल्कि दुनिया ने मुझको संतप्त किया है ! तृष्णा जीर्ण नही हुई बल्कि मै जीर्ण हो गया !जो मेरी थी ,मेरी है ,और मेरी रहेंगी ऐसी आत्मा को भोगने का प्रयास नही किया कभी ! अब तो मुझे अपनी आत्मा का स्वाद लेना है !यही अंतिम एवं सबसे बड़ा कार्य शेष रहा है ! ऐसा विचार करता हुआ ही मनुष्य आकिंचन धर्म की ओर बढ़ने का प्रयास कर सकता है !सबसे कठिन कार्यभव्य जीव के लिए  है अपने से ही मुलाक़ात करना ! जीव की एक बार अपने आप से मुलाक़ात हो जाए वह दुनिया की समस्त तस्वीरें भूल जाता है ओर जब भी किसी तस्वीर को देखने का भाव करता है तो तुरंत उसका ज्ञान बोल पड़ता है कि ;
     अपनी  आत्मा मे ही है तस्वीरे यार दुनिया की ,जब जरा गर्दन झुकाई देख ली !
            एक म्यान मे दो तलवारें नही रह सकती ! सांसारिक पर पदार्थों को भोगने की लालसा जिस व्यक्ति मे है उसे सच्चा सुख ,आत्मा का सुख प्राप्त नही हो सकता !  न तो परिग्रह वान  को मोक्ष मिला है न ही मिलेगा कभी ! किसी ने कहा है ;
दुनिया    मे   उसने   बड़ी  बात  कर ली 
जिसने अपने आप से मुलाकात कर ली
 मुनि श्री 108 सुधासागर जी महाराज "दस धर्म सुधा " मे 
सभी मुनि,आर्यिकाओं ,साधु,साध्वियों,श्रावक,श्राविकाओं
को यथोचित नमोस्तु,वन्दामी,मथे वन्दना ,जय जिनेन्द्र,नमस्कार
शुभ प्रात:

Tuesday 28 February 2012

उत्तम आकिंचन धर्म

           कितना दिया है ? कितना दान दे दिया ? इसका ध्यान आते ही आत्मा मे अहंकार का भाव आता है ! और कितना करना है ?कितना देना है ? यह सोचते ही आत्मा मे पुरुषार्थ का भाव जगता है !
          कहने का तात्पर्य यह है कि तुमने त्याग कर लिया है यह न सोच कर यह सोचें कि अभी कितना करना बाकी है ;तो ही आप आकिंचन धर्म कि ओर बढ़ रहे हैं ! 
         त्याग का भी  त्याग करना यह आकिंचन धर्म है ! 
         तुलसीदास जी के जीवन की एक घटना है .एक बार उनके घर मे एक चोर घुस आया ! तुलसीदास जी उस समय जाग रहे थे ! उन्हें जागता हुआ देख वह भाग खड़ा हुआ ! तुलसीदास उसे भागता हुआ देख चिंतन करने लगे  कि अगर मेरे पास धन न होता तो यह चोर अमावस्या की इस अँधेरी रात मे अपने जीवन को संकट मे डाल कर चोरी करने क्यों आता ! ज्ञानी व्यक्ति हमेशा उपादान को ही दोष देता है ! निमित्त बुद्धि उसकी होती ही नही ! सवेरा होते ही सारा धन पोटली मे बाँध कर नदी मे बहा दिया ! यह कहते हुए कि "न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी"! जब धन ही नही रहेगा तो डाकू कहाँ से और किसलिए आयेंगे ! कहते हैं उस दिन के बाद तुलसीदास मे अपनी कुटिया मे ताला नही लगाया !  
मुनि श्री 108 सुधासागर जी महाराज "दस धर्म सुधा " मे

Saturday 25 February 2012

त्याग

                 त्याग का अर्थ है छोडना ! त्याग हमेशा उसका किया जाता है जो अपने लिए हितकारी नही है ! राग और द्वेष ऐसी ही वैभाविक स्तिथियाँ हैं जो आत्मा को संसार मे रोके रखती हैं ! अत: इनका त्याग अपेक्षित है !
          आचार्य पूज्यपाद के अनुसार संचय  के योग्य ज्ञानादि का दान करना त्याग है ! स्वयं अपना और दूसरे का उपकार करना अनुग्रह है ! ज्ञान देने मे पुण्य का संचय होता है, यह अपना उपकार है और जिसको ज्ञान दिया जाता है ,उसके सम्यक्दर्शन आदि की वृद्धि होती है ! यह पर का उपकार है ! 
*********
           जब हम शरीर को अलग अलग दृष्टि से देखते  हैं ,तो कितना अंतर दीखता है ! जैसे किसी को पैर लगा तो बहुत अनर्थ हो गया ,जब किसी का पैर बढ़ रहा है तो शत्रुता का प्रतीक है ,और उसी व्यक्ति का हाथ बढ़ रहा है तो मैत्री का प्रतीक है ! 
मुनि श्री 108 सुधासागर जी महाराज "दस धर्म सुधा " मे

Friday 24 February 2012

ग्रहण और त्याग

            गर्मी से गर्मी कटती है ,कांटे से काँटा निकलता है ! ग्रहण करते हुए मेरी बुद्धि नही जाती कि मै अधर्म कर रहा हूँ ! यह मेरा स्वभाव नही है ! त्याग करते हुए तेरी बुद्धि जाती है कि त्याग करना आत्मा का स्वभाव नही है ! कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा कि त्याग करना आत्मा का स्वभाव नही है ,तो "समयसार" मे यह भी कहा गया है कि ग्रहण करना मेरा स्वभाव नही है ! पूजा करना मेरा स्वभाव नही है तो साथ मे यह भी कहें कि भोजन करना भी स्वाभाव नही है ! पूजा करते  समय यह भाव आ जाता है कि यह सब व्यर्थ है ! क्या रखा है इसमें ? पूजन का द्रव्य एक थाली से दूसरी थाली मे चढाना ,क्या पुण्य का ,धर्म का काम हो सकता है ?लेकिन क्या कभी यह सोचा कि इस थाली का पेट रुपी थाली मे डालना भी धर्म होता है क्या ? तुम जिस थाली मे डालते हो वह सात धातुओं से युक्त दुर्गंधमय है ? और इसमें तुम सुगन्धित खाद्य पदार्थ डालते हो और निकलता है दुर्गन्ध युक्त पदार्थ ? यह अज्ञानता कभी ज्ञान मे आएगी ? पूजा की दोनों थाली गन्दी नही होती ; लेकिन तुम जिस थाली मे सुगन्धित भोजन डालते हो वह थाली दुर्गन्ध युक्त पदार्थ निकालती है ! क्या इसे भी अधर्म कहा कभी ? पूजन दिन मे एक बार किया और भोजन ? दिन मे दस बार  ! आज तथा कथित स्वाध्यायी बंधुओं मे यह परिणाम नही आये कि संकल्पी हिंसा का त्याग कर दूँ ! ऐसा झूठ न बोलूं जिससे किसी की आजीविका चली जाए ! ऐसा कुशील न करूँ !जिस पर मेरा अधिकार नही है ,उस पर नियत खराब नही करूँ ! इतना भी नियम लिया नही और धर्म छोड़ दिया !वह व्यक्ति ऐसा है जिसने कीचड़ लगाना छोड़ा नही और जल का त्याग कर दिया ; पाप रुपी कीचड़ आत्मा पर डालना छोड़ा नही और पुण्य रुपी जल का त्याग कर दिया ! 
मुनि श्री 108 सुधासागर जी महाराज "दस धर्म सुधा " मे

Wednesday 22 February 2012

काल करे सो आज कर

    काल करे सो आज कर ,आज करे सो अब 
    पल मे प्रलय  होएगी ,  बहुरि  करेगा कब
                 सम्यकदृष्टि का लक्षण बता रहा हूँ कि सम्यकदृष्टि ही धर्म कार्यों मे कहता है -काल करे सो आज कर ,आज करे सो अब ! सम्यकदृष्टि कहते हैं कि क्या सोचना ? कल का क्या भरोसा ? मै जिन्दा रहूँगा कि नही ? और आज करे सो अब ! लेकिन आप क्या करते हो ?
   आज   करे   सो  काल  कर  ,काल  करे  सो परसों 
   जल्दी -जल्दी क्या करता है अभी तो जीना बरसों!
                       बस इतना ही अंतर है सम्यकदृष्टि और मिथ्यादृष्टि मे ! सम्यकदृष्टि कहता है जिन्दगी पल भर है ,और मिथ्यादृष्टि कहता है ,जिन्दगी बहुत बड़ी है !सम्यकदृष्टि कहता है कि ध्यान रखना ,मै सम्यकदृष्टि हू ,शुद्ध हूँ ,मुझे आत्मा की प्रतीति हुई है ,मुझे भेद विज्ञान हुआ है ! मै स्वाभिमानी हूँ ! मै दुसरे के निकालने से पहले ही निकल जाता हूँ ! चार लोग मिल कर उठा कर ले अर्थी बनाकर के जला आओगे ! लो मै इस घर को जीते जी ही छोड़कर जाता हूँ 
 मुनि श्री 108 सुधासागर जी महाराज "दस धर्म सुधा " मे

Tuesday 21 February 2012

सूरज और तप

                 सूरज को आपने देखा ? उसी सूरज मे कितने देवता बेठे हैं उन्हें भी तपन होती है क्या ?नही ! इसी प्रकार तपस्या करने वाला भेद विज्ञानी  होता है, जो बाहर तपता है ,कोई हाथ से छू ले तो आग लग जाए ! अंदर तो उसे ऐसा आनंद आता है जैसे सूर्य मे बेठे हुए देवताओं को ! जब जीव बहिर्मुखी होकर तपस्या करेगा तो नियम से उपवास मे भी उसे स्वप्न मे भी भोजन पानी ही दिखाई देगा ! अंतर्मुखी होगा तो उसे कोई मतलब नही उसे दीन  दुनिया से ! 
 मुनि श्री 108 सुधासागर जी महाराज "दस धर्म सुधा " मे

Monday 20 February 2012

शिव और आदिनाथ

 जो छोड़ देता है वह शिव बन जाता है और जिनका
  छुडाया जाता है वह शव बनता है ! कितना फर्क है ?
 शिव और शव मे कितना अंतर है ? एक इ की मात्रा
अंतर है ! यानि लक्ष्मी ! यदि छोड़ दी ,तो शिव बनोगे
और छुडा लिया जाएगा तो शव बन जाओगे !
  मुनि श्री 108 सुधासागर जी महाराज "दस धर्म सुधा " मे

शिव और तीर्थंकर आदिनाथ मे काफी  समानताएँ हैं !
शिव का त्रिशूल ,जैन दर्शन मे सम्यक दर्शन ,सम्यक चरित्र
और सम्यक ज्ञान के रूप मे माना जाता है ,दोनों का मोक्ष
कैलाश पर्वत से ही मानते हैं !  आचर्य मानतुंग जो राजा
भोज के समय हुए उन्होंने तीर्थंकर आदिनाथ की भक्ति करते हुए
भक्तामर स्तोत्र मे लिखा भी है :-
बुद्घस्त्वमेव विबुधार्चित-बुध्दि-बोधात्
त्वं शकंरोऽसि भुवन-त्रय-शकंरत्वात्|
धातासि धीर! शिव-मार्ग-विधेर्विधानात्
व्यक्तं त्वमेव भगवन्तुरुषोत्तमोऽसि || |25|

देव अथवा विद्वानों के द्वारा पूजित ज्ञान वाले होने से
आप ही बुद्ध हैं| तीनों लोकों में शान्ति करने के कारण
आप ही शंकर हैं| हे धीर! मोक्षमार्ग की विधि के करने वाले होने से
आप ही ब्रह्मा हैं| और हे स्वामिन्!
आप ही स्पष्ट रुप से मनुष्यों में उत्तम अथवा नारायण हैं |
on Facebook from " Jain Terapanthostu Manglam group "

तपना

            आगम मे बताया है कि तपना ही पड़ेगा ! जब कोई चीज तपती है ,उसकी वाष्प ऊपर की ओर जाती है ,और कोई चीज ठंडी होती है तो नीचे की ओर जाती है !तपे हो तो ऊपर जाओगे ,और ठन्डे हो तो नीचे जाओगे ! बस इतना ही अंतर है ! और कोई फर्क नही ! जल को आप तपाते हो ,जल वाष्प बनकर ऊपर उड़ने लग जाता  है  और जब ठंडा हो जाता है तो नीचे आकर मिटटी मे मिल जाता  है!  ठन्डे हो जाओगे तो मिटटी मे मिल जाओगे और गर्म बने रहोगे तो आकाश मे तैरोगे ! दुनिया मे कितना भी प्रलय हो जाए ! लेकिन जो एक बार उर्ध्वगमन कर गया ,उसकी शक्ति कभी नीचे आने वाली नही ! 
 मुनि श्री 108 सुधासागर जी महाराज "दस धर्म सुधा " मे
 सभी मुनि,आर्यिकाओं ,साधु,साध्वियों,श्रावक,श्राविकाओं
को यथोचित नमोस्तु,वन्दामी,मथे वन्दना ,जय जिनेन्द्र,नमस्कार
शुभ प्रात:

Saturday 18 February 2012

मानव जन्म और तपस्या

                  मानव जन्म  पिछले जीवन मे किये बड़े  पुण्य से मिला है ! इस शरीर को पाप मे गँवा दिया तो तुम्हारे लिए घातक हो जाता है और यही शरीर यदि धर्म मे लगा दिया तो साधक हो जाता है ! देखिये कितना अंतर आ गया ? यह शरीर भोगों मे सुखाने के लिए नही ! एक तपस्वी भी अपनी काय को सुखाता है और एक भोगी भी अपनी काय को सुखाता है ! योगी भी शरीर की उर्जा को नष्ट करता  है और भोगी भी शरीर की शक्ति को खर्च करता है ,योगी अपनी शरीर की उर्जा को ऊपर की दिशा मे भेज देता है और भोगी अपनी शक्ति को नीचे की दिशा मे भेज देता है ,दोनों अपनी उर्जा का उपयोग करते हैं ,बस अंतर इतना है ! नाभि स्थान पर उर्जा संगृहीत है ! वाणी की जितनी भी शक्तियां प्रकट होती हैं वे सब नाभि स्थान से होती हैं ! नाभि चक्र पर यदि कंट्रोल कर लिया तो उर्जा ऊपर की ओर बढनी शुरू हो जायेगी ! नाभि केन्द्र पर जिनका कंट्रोल नही है ,उसकी उर्जा भी अधोगमन हो कर नीचे की ओर बह जायेगी ! भोगी अपनी उर्जा का अधोगमन कर देता है ,ओर योगी अपनी उर्जा का उर्ध्वारोहन कर देता है ,तब योगी को स्वत: अनेक अनेक शक्तियां प्रकट हो जाती हैं ! इसी को बोलते हैं तपस्या ! उर्जा का उर्ध्वारोहन करना ही तपस्या है 
मुनि श्री 108 सुधासागर जी महाराज "दस धर्म सुधा " मे 

मिथ्यात्व रुपी भुजंग और कषाय रुपी नागिन

          बड़े बड़े सर्प चन्दन के वृक्ष से लिपटे रहते हैं ,क्योंकि चन्दन की सुगन्ध सबसे ज्यादा अच्छी लगती है सर्प को ! सर्प वृक्ष से जाकर लिपट जाते हैं और इतने मस्त हो जाते हैं कि यदि उनको खींचोगे तो वो टूट जायेंगें ,लेकिन वृक्ष को छोड़ने वाले नही ! उसी प्रकार मिथ्यात्व रुपी भुजंग और कषाय रुपी नागिन हमारी आत्मा से ऐसे चिपक गयी है कि यदि हम खींचते हैं तो टूटना पसन्द करते हैं ,लेकिन छोडना नही !
मुनि श्री 108 सुधासागर जी महाराज "दस धर्म सुधा " मे 

Friday 17 February 2012

संयम से अनन्त सुख

असि ,मसि ,कृषि  ,शिल्प ,विद्या ,वाणिज्य  के द्वारा प्राणी 
शरीर ,धन ,पुत्र  के लिए  जितनी  मेहनत  करता  है  ,उतना 
पुरुषार्थ  यदि  एक  बार  भी  स्वयं के  लिए  कर  ले तो क्या 
निर्मल अनन्त सुख की प्राप्ति नही हो सकती ! 

मुनि श्री 108 सुधासागर जी महाराज "दस धर्म सुधा " मे 
सभी मुनि,आर्यिकाओं ,साधु,साध्वियों,श्रावक,श्राविकाओं
को यथोचित नमोस्तु,वन्दामी,मथे वन्दना ,जय जिनेन्द्र,नमस्कार
शुभ प्रात:



Thursday 16 February 2012

आज का विचार 16.02.2012


जो हाथ जोड़कर जीना और मुस्कुरा कर मरना
जानता है ,वह बड़ा है ! उसके जीवन मे अहंकार
की छाया नही पड़ती ! 

आर्यिका 105 माता स्वस्ति भुषण जी की
“एक लाख की एक एक बात “ से सभी मुनि,आर्यिकाओं ,साधु,साध्वियों,श्रावक,श्राविकाओं
को यथोचित नमोस्तु
,वन्दामि , मत्थेण वन्दामि ,जय जिनेन्द्र,नमस्कार
शुभ प्रात:

गुरु की महिमा वरनी न जाए

गुरु की महिमा वरनी न जाए
गुरु नाम जपो मन वचन काय !
 पूजाकार कहता है -संयम रुपी गुरु मिल जाए तो उनकी महिमा का क्या कहना ? जो गुरु संयमी नही हैं ,वो पत्थर की नाव के समान  हैं ! पंच परमेष्ठी ही सच्चे गुरु हो सकते हैं ! पंच परमेष्ठी के अलावा जो गुरु मानता है ,वो मिथ्यादृष्टि है ! पंच परमेष्ठी है ,अरिहंत ,सिद्ध ,आचार्य ,उपाध्याय ,साधु !
ज्ञान  छाया है तो संयम फल है ,दो पेड होते हैं ,एक फलदार पेड और एक बिना फल वाला पेड ! बबूल का पेड ! जिससे छाया तो मिलती है ,लेकिन भूख से  तड़प तडप कर मर जाओगे ,लेकिन फल नही मिलेगा ! बबूल  की छाया मे तड़प तडप कर मर जाओगे ,लेकि आम जैसा  फलदार पेड होगा तो उसकी छाया मे चले जाना ,छाया तो मिलेगी ही और भूख लगेगी तो आनंद मे डूब जाओगे ! लेकिन संसार की दोपहरी मे ज्ञान रुपी छाया मिल जाए और साथ मे संयम रुपी फल मिल जाए तो आनंद आ जाता है ! संयम रुपी फल पाते ही जी परिणामिक भावना का स्वाद चखने लगता है ! शुद्ध आत्मा का अनुभव होने लगता है ! लेकिन ज्ञान के साथ संयम जुड़ने का अर्थ है जीवन रुपी फलदार पेड मिल गया ! जिसको ज्ञान के साथ संयम मिल गया उसकी जिन्दगी मे छाया तो मिली और फल भी मिल गया !
संयम को  बाहर से   देखो तो गम ही  गम नजर आते हैं
जरा    अंदर जाओ   तो सरगम   लहराते  नजर आते हैं !
 मुनि श्री 108 सुधासागर जी महाराज  "दस धर्म सुधा " मे 
 सभी मुनि,आर्यिकाओं ,साधु,साध्वियों,श्रावक,श्राविकाओं
को यथोचित नमोस्तु
,वन्दामि , मत्थेण वन्दामि ,जय जिनेन्द्र,नमस्कार
शुभ प्रात:



Wednesday 15 February 2012

आज का विचार 15.02.2012




“जो कुछ हुआ सही हुआ” इन शब्दों मे
वो जादू है जो मन्त्र का काम करते है !

आर्यिका 105 माता स्वस्ति भुषण जी की
“एक लाख की एक एक बात “ से सभी मुनि,आर्यिकाओं ,साधु,साध्वियों,श्रावक,श्राविकाओं
को यथोचित नमोस्तु,वन्दामि , मत्थेण वन्दामि ,जय जिनेन्द्र,नमस्कार


सोने मे सुहागा

                   आत्मा के अनुभव के बिना जो सयंम को धारण करते हैं वे संयम से उब जाते हैं ! आप कभी सुनार के यहाँ जाना ,उसकी भटठी मे एक चीनी मिटटी की हंडिया होती है ,उसमे आपका सोना रख दिया जाता है ! भटठी मे सोना क्यों रखा गया ? उसका मैल निकालने के लिए ! दोष निकालने के लिए ! सोना रख देंगे हंडिया के अंदर ,और अग्नि मे जला देंगे ,ऊपर से सुहागा फैकते हैं ! उसमे सुहागा डालने से क्या होता है ? सुहागे से मैल काटकर नीचे हंडिया मे चिपक जाता है और सोना शुद्ध हो जाता है ! सोने के पिघलने के लिए संयम की जरूरत है ,और सोना पिघल रहा हो तो उसमे सुहागा डालना यह ज्ञान का काम है ! पिघले हुए सोने मे सुहागा डाल दो ! सारा मैल काटकर अलग हो जाएगा !पूछ लेना उन से जो भटठी मे सोना तपाते हैं ! तभी से यह पंक्ति बनी है "सोने पे सुहागा हो गया " ! संयम को धारण कर लिया ; लेकिन ज्ञान रुपी सुहागा  नही डाला तो वह मैल वहीँ के वहीँ पिघला और बाद मे ठंडा हुआ तो वही के वहीँ जम गया ! पिघल तो जाएगा ! यदि ज्ञान रुपी सुहागा नही डाला तो ठंडा हो कर जम जाएगा ! सारी मेहनत  व्यर्थ हो जायेगी संयम मे जाने की ! और ज्ञान रुपी सुहागा डाल दिया तो जीवन से मैल अलग हो जाएगा ! 
मुनि श्री 108 सुधासागर जी महाराज  "दस धर्म सुधा " मे

Tuesday 14 February 2012

आज का विचार 14.02.2012




बालक गुल्लक मे एक दो रुपया डालकर भर
देता है ,वैसे प्रतिदिन एक एक गुण ग्रहण कर
जीवन गुणवान बनाओ !

आर्यिका 105 माता स्वस्ति भुषण जी की
“एक लाख की एक एक बात “ से 
सभी मुनि,आर्यिकाओं ,साधु,साध्वियों,श्रावक,श्राविकाओं
को यथोचित नमोस्तु
,वन्दामि , मत्थेण वन्दामि ,जय जिनेन्द्र,नमस्कार
शुभ प्रात:

Monday 13 February 2012

जय जिनेन्द्र

जय जिनेन्द्र का अर्थ है , 'जय ' यानी जयवंत रहो , जयवंत हो जाओ ऐसा भी होता है ! जयवंत हो जाओ , विजयी बनो , जिनेन्द्र भगवन के सामान विजयी बनो , जीतने के लिए संसारी प्राणी के पास बहोत कुछ है ,जीतने के जो विषय है वो अन्तरंग में है , विजय किसपर पाना , एक विकारी भाव और दूसरा विकार भाव उत्पन्न करनेवाले पर विजय पाना है !
जो संसारी प्राणी दुःख से पीड़ित है उसे जय जिनेन्द्र बोलते है , जिनेन्द्र भगवन ने अपने आत्मा के विकारी भावों को जीतकर संसारी वास्तु को जीत लिया है , वैसे ही दुखी व्यक्ति भी दुःख को जीतकर सुखी हो..... जय-जिनेन्द्र – जैनों में परस्पर विनय और प्रेमभाव प्रकट करने के लिये जय-जिनेन्द्र शब्द बोला जाता है । पहली बात तो जय जिनेन्द्र बोलने से जैन होने की पहचान होती है और साथ में भगवान् का नाम भी हम ले लेते है अगर कोई हमारे मुख से जय जिनेन्द्र सुने तो हमारे संस्कार अच्छे दीखते है ......जय जिनेन्द्र
With input from my friend :Kothari Nitinkumar Jain

सोमा सती

                      जैन दर्शन मे एक उदाहरण आता है ,सोमा सती  का ! पति ने लाकर एक घड़ा रख दिया ,उसे मारने के लिए जिसमे नाग रखा था ! उत्तम आर्जव धर्म की ,सरलता की बात कर रहा हूँ ! वह घडे का ढक्कन खोलती है ,तो नाग का हार बन जाता है ! पत्नी कहती है ,इतना सुन्दर हार ,स्वामी यह तो मै पहले आपको पहनाऊँगी ,और  उसे पहना देती है ! पति के गले मे जाते ही वह हार से नाग बन जाता है ! आर्जव धर्म वाले का मन ,वचन ,काय सरल ,समभाव होता है
***********
                    "कठिन वचन मत बोल" एक कटु यानि कठिन वचन ने महाभारत का युद्ध करवा दिया ! "अंधे के अंधे ही पैदा होते हैं " बात -बात मे विनाश ! आज उसी प्रकार  चरित्र को धारण करने नही ,बातों -बातों मे आध्यात्म की चर्चा करते करते धार्मिक व्यव्हार को छोड़ देते हैं !
!मुनि श्री 108 सुधासागर जी महाराज  "दस धर्म सुधा " मे

आज का विचार 13.02.2012



आज के संबंधों मे समझ तो है ,पर संवेदना नही !


आर्यिका 105 माता स्वस्ति भुषण जी की
“एक लाख की एक एक बात “ से 
सभी मुनि,आर्यिकाओं ,साधु,साध्वियों,श्रावक,श्राविकाओं
को यथोचित नमोस्तु
,वन्दामि , मत्थेण वन्दामि ,जय जिनेन्द्र,नमस्कार
शुभ प्रात:

Sunday 12 February 2012

आज का विचार 12.02.2012



कभी किसी की उपेक्षा मत करो !


आर्यिका 105 माता स्वस्ति भुषण जी की
“एक लाख की एक एक बात “ से सभी मुनि,आर्यिकाओं ,साधु,साध्वियों,श्रावक,श्राविकाओं
को यथोचित नमोस्तु
,वन्दामि , मत्थेण वन्दामि ,जय जिनेन्द्र,नमस्कार
शुभ प्रात:

Saturday 11 February 2012

भाग्य और पुरुषार्थ

                            भाग्य भरोसे जो जीता है वह कायर कहलाता है ! बाहुबल के भरोसे जो जीता है वह प्रसिद्द है ! बाहुबली ,क्षत्रिय कहलाता है वह ! हथेली कि लकीरों के बल पर जीना कायरता है ,और बाहुबल पर जीना वीरों का काम है ,बस इतना ही ! हथेली के बल जीते हैं कि मेरी किस्मत मे क्या लिखा है ,और पुरुषार्थी वे हैं जो कहते हैं मेरे भाग्य मे जो लिखा होगा वो होगा ! पांडव जैन दर्शन के मानने वाले थे ! क्षत्रिय थे ,बाहुबल से हम सब कुछ कर लेंगें ,और कर दिखाया उन्होंने ! खांडप्रस्थ को परिवर्तित करके इन्द्रप्रथ मे ! खांडप्रस्थ कहते हैं ,खंडहर के स्थान को ,जो उन्हें ध्रतराष्ट्र ने दिया था ! 
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                         भगवान मरते समय कम से कम इतना तो हो कि आपका नाम ले सकूँ ,बस इतना देना ज्यादा नही मांगता ! मेरा ह्रदय आपके चरणों मे लीन रहे ! भगवान के चरण मेरे ह्रदय मे तब तक विराजमान रहें ,जब तक कि निर्वाण को प्राप्त न हो जाऊं ! 
मुनि श्री 108 सुधासागर जी महाराज  "दस धर्म सुधा " मे

आज का विचार 11.02.2012



 कष्ट को अग्नि कहा है ,लेकिन मिटटी का कच्चा घड़ा
 अग्नि परीक्षा देता है,कच्चे फल सूर्य की संतप्त किरणों
 से तपते हैं ,तब मधुर और सुस्वादु होते हैं ,फुल सुईं मे
 बींधकर ही गले का हार बनते हैं ,चन्दन घिसने पर ही
 सुगन्ध देता है ,अत: कष्टों मे तपकर ही जीवन सोना
 बनता है !
 आर्यिका 105 माता स्वस्ति भुषण जी की
“एक लाख की एक एक बात “ से सभी मुनि,आर्यिकाओं ,साधु,साध्वियों,श्रावक,श्राविकाओं
को यथोचित नमोस्तु ,वन्दामि , मत्थेण वन्दामि ,जय जिनेन्द्र,नमस्कार
शुभ प्रात: