मेरा अपना इसमें कुछ भी नहीं .........

जो भी कुछ यहाँ लिखा है जिनेन्द्र देव और जैन तीर्थंकरों की वाणी है !

जैन साधुओं व साध्वियों के प्रवचन हैं !!

सभी को इसे Copy/Share करने की स्वतंत्रता है !

कोई कापीराइट नहीं ..........

Saturday 31 March 2012

प्रभावना अंग

         अज्ञान रुपी अन्धकार के प्रसार को यथा सम्भव उपायों के द्वारा दूर करके जिन शासन के महात्मय को जगत मे प्रकाशित करना प्रभावना अंग है !
         जिस किसी ने प्रथ्वी मंडल के सभी राजाओं को अपना आज्ञाकारी बना लिया है ,जिसके बाहुबल के आगे टिकने मे कोई समर्थ न हो ,वह महाबली भी एक अबला के चंगुल मे फंसकर पानी पानी हो जाता है ! बड़े बड़े शूरवीरों के लोह्मयी वाणों से जिसका बख्तर नही भिद पाता ,वही बख्तर अबला के कटाक्ष वाणों से चूर-चूर होता देखा गया है !
         मतलब यह कि दुनिया के लोगों को वश मे जरूर किया ,परन्तु अपने आपको वश मे नही रखा ! अपने मन को काबू मे नही रखा ! इसीलिए  दुनिया को जीतने के लिए काम को जीतना जरूरी होता है ,जिसने काम को जीत किया वस्तुत: वही जिन है ! सर्व विजेता कहलाने का अधिकारी है !
       जो हर्ष विषादादि सभी तरह के मानसिक  विकारों से सर्वथा दूर हो वही जिन है  और उन्ही जिन भगवान का यह उपदेश है कि हरेक मनुष्य को अपने मन व इन्द्रियों को काबू मे करें !
समझदार व्यक्ति को चाहिये कि अपने मन मे दुसरे की बुरी आदत से हटाकर सन्मार्ग पर लगाने का विचार करें ! किस उपाय से लोग ठीक राह पर आएं ये सोचें !
      मीठे वचनों से उन्हें समझाएं और खुद अपनी ऐसी प्रवृत्ति बनाएँ जिसे आदर्श मानकर लोग उनका अनुसरण करने लग जाएँ ! सबसे पहली बात तो ये है कि हम जिस राह पर लोगों को चलना और देखना पसन्द करते हैं उस पर खुद चलें ! कहें कम और करें अधिक तो लोग अवश्य उसका अनुसरण करेंगें और यही सच्ची प्रभावना होगी !
मूल रचना  :    "रत्न करंड  श्रावकाचार "मानव धर्म  आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी 
 हिन्दी व पद अनुवाद : आचार्य श्री ज्ञान सागर जी व आचार्य श्री विद्या सागर जी   

Friday 30 March 2012

वात्सल्य अंग

     अपने समाज के प्रति,छल कपट रहित,सदभाव सहित यथोचित स्नेहमयी प्रवृत्ति को वात्सल्य अंग कहते हैं ! 
       सभी  के साथ सच्चे दिल से प्रेम करना और समुचित व्यवहार के द्वारा यह दिखलाते रहना कि हम आपके ही हैं ,बस इसी का नाम वात्सल्य अंग है ! किसी को भी वश मे करने का उपाय है तो परस्पर का प्रेम है ! मजबूत से मजबूत लोहे के सांकल को मनुष्य तोड़ सकता है ,परन्तु प्रेम के बंधन को नही तोड़ सकता ! देखो ,जो भौरा कठिन से कठिन काठ मे  भी छेद कर डालता है ,वह कमल के अंदर पड़ा हुआ अपने प्राण तक दे देता है ,इसमें क्या कारण है ? है तो यही कि उसका उस से प्रेम है ! इसीलिए उसे जरा भी तकलीफ न देकर अपने प्राण तक दे देता है !
       "पाँव पिचानि मोचडी ,नयन पिछाणी नेह " अर्थात अन्धकार मे भी हम अपनी जूतियों को अपने पैरों मे पहनकर पहचान लेते हैं ! अपनी जूतियाँ अपने पैरों मे जैसे ठीक बैठती हैं ,वैसी दूसरों की नही बैठती ! उसी प्रकार सामने वाले के प्रति हमारा प्रेम है कि नही ये हम उसके नेत्रों की तरफ गौर से देखकर पहचान लेते हैं ,जां सकते हैं ! किसी भी को दुखों दरिद्र व्यक्ति को देखकर उसकी मदद करने मे जी जान से जुट जाता है ,यही वात्सल्य अंग है !
       मतलब  यह है कि भला आदमी दुनिया को अपनाते हुए अपने से प्रतिकूल चलने वाले को भी रास्ता सुझाते हुए प्रसन्नता पूर्वक चलता है और विश्व भर मे अपनी छवि बनाता है !
मूल रचना  :    "रत्न करंड  श्रावकाचार "मानव धर्म  आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी 
 हिन्दी व पद अनुवाद : आचार्य श्री ज्ञान सागर जी व आचार्य श्री विद्या सागर जी   

Thursday 29 March 2012

स्थितिकरण अंग

          सम्यक् दर्शन अथवा सम्यक चरित्र से चलायमान होने वाले लोगों का धर्म वत्सल जनों के द्वारा पुन: अवस्थापन करने को प्राज्ञ पुरुष स्थितिकरण अंग कहते हैं !
        इस  सँसार मे कोई भी व्यक्ति अपना कार्य दुसरे की सहायता के बिना नही कर सकता ! इसीलिए  हम भी दूसरों की मदद करना सीखें ! कहीं ऐसा न  हो  कि आजीविका की कमी से या रोग से या और किसी कारण से घबराकर कोई भई बहन अपने सदाचार या समुचित विशवास से भ्रष्ट होकर पतित हो जाए ! बेसहारा को सहारा देकर थामना और जो ठोकर खा कर गिर पड़ा हो उसे उठाकर फिर से सावधान करना ही होशियारी है न कि उसे कोसना ! भूल होना कोई बड़ी बात नही है ,भूलना मनुष्य का प्राकर्तिक धर्म है और हम जानते हैं तो प्रेम पूर्वक मीठे शब्दों मे उसे समझाएं ! रास्ते पर लाएं ! वरना हमारी समझदारी किस की ! साथी का साथ वही जो आपत्ति के समय साथ आये ,काम आये !
मूल रचना  :    "रत्न करंड  श्रावकाचार "मानव धर्म  आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी 
 हिन्दी व पद अनुवाद : आचार्य श्री ज्ञान सागर जी व आचार्य श्री विद्या सागर जी   

Wednesday 28 March 2012

उपगूहन अंग

        स्वयं शुद्ध निर्दोष सन्मार्ग को बाल (अज्ञानी) और अशक्त जनों के आश्रय से होने वाली निंदा को जो दूर करते हैं उसे ज्ञानी जन उपगूहन अंग कहते हैं !
      बुरे काम की ओर मनुष्य की सहज भाव से प्रवृत्ति होती है ! समझाने पर भी भली बात की ओर झुकना इसके लिए कठिन होता है प्रथम तो बहली बात को सुनना भी कोई नही पसन्द करता ,अगर किसी ने सुन भी लियातो फिर उस पर चलना वह अपने लिए उतना ही कठिन समझता है जितना सांप के लिए सीधा चलना ! अगर कहीं किसी ने स्वीकार कर भी लिया तो उसे अन्त तक उस रूप मे निभाना बहुत ही कठिन होता है ! अगर कोई अपने किये हुए संकल्प को निभाना भी चाहता है ,तो दुनियादारी के लोग उसे स्पर्धा करके अपने संकल्प पर डटे रहने से लाचार बनाने की चेष्टा करते हैं ,उसे हर तरफ से बाध्य किया करते हैं ताकि वह अपने कर्तव्य से हट जाए ! समझदार आदमी किसी की बुराई करना जानता ही नही ,वह अपने आपकी अपेक्षा सभी को बहुत अच्छा मानता है ! वह हर समय अपने अवगुणों को देखा करता है ,दूसरे के अवगुणों की तरफ उसकी निगाह जाती ही नही ! दूसरे मे कोई गुण हों तो वह ग्रहण करने को लालायित रहता है ! दूसरे की बुराई को सुनना भी नही चाहता ,वह मानता है कि दूसरे की बुराई सुनने वाला ही बुरा होता है !अगर किसी के सामने किसी की बुराई का प्रसंग आता भी है तो वह बड़ी चतुराई से ताल जाता है ! इसी प्रकार सज्जन को चाहिए कि दूसरे के अवगुणों मे से भी गुण ढूंढ ले ! समालोचकों की दृष्टि मे बिलकुल न खटके ताकि हर व्यक्ति सहज सन्मार्ग पर चलने लगे !
मूल रचना  :    "रत्न करंड  श्रावकाचार "मानव धर्म  आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी 
 हिन्दी व पद अनुवाद : आचार्य श्री ज्ञान सागर जी व आचार्य श्री विद्या सागर जी   

Tuesday 27 March 2012

अमुढदृष्टि

         दुःख के कारणभुत कुमार्ग मे और कुमार्ग पर स्थित व्यक्ति मे मन से सहमति न देना ,काय से सराहना नही करना ,वचन से प्रशंसा नही करना  अमूढदृष्टि अंग कहा जाता है !
        दुनिया  के बहुतायत  मनुष्य अपना पेट पालना चाह्ते हैं ,अपनी रोटी को ताव देना चाह्ते हैं ,दूसरों से इर्ष्या द्वेष रखते हैं ! मनुष्य का असर सब प्राणियों पर पड़ता है ! प्राणियों पर ही नही ,बल्कि भूतल की समस्त चीजों पर मनुष्य की भावना का प्रभाव दिखाई पड़ता है क्योंकि मनुष्य सबका मुखिया है ! मनुष्य का दिल जब संकीर्ण होता है वह औरों की भलाई से मुहं मोड लेता है ,मेघ भी समय पर नही बरसते ,वृक्षों पर फल नही आते ,उन्हें हवा मार जाती है या कीड़े मकोड़े लग जाते हैं और वसुंधरा पर फसल पैदा नही होती ! सब दुखी हो जाते हैं ! मनुष्य अगर अपनी भावना बदल दे ,परोपकार मय बना ले तो फिर दुनिया की चीजें भी उसी रूप परिणत हो जाती हैं ! हम रामायण मे सुना करते हैं राम चन्द्र जहाँ भी जाते थे वहाँ सूखे घास हरे हो जाते थे ,सूखे तालाब पानी से भर जाते थे ! इसका कारण यही था कि उनके अन्तरंग मे सबके प्रति परोपकार की भावना प्रबल  थी ! सन्मार्ग को उपादेय मान कर अपने आपकी भान्ति औरों का भी उपकार करे ,सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दें ! एतावता सन्मार्ग पर चलते चलते कोई व्यक्ति स्खलित भी हो जाए तो सयाने आदमी उसे प्रयास करके फिर सन्मार्ग पर लाते हैं !
मूल रचना  :    "रत्न करंड  श्रावकाचार "मानव धर्म  आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी 
 हिन्दी व पद अनुवाद : आचार्य श्री ज्ञान सागर जी व आचार्य श्री विद्या सागर जी    

Monday 26 March 2012

निर्विचिकित्सा अंग

              स्वभाव से ही अपवित्र किन्तु रत्नत्रय को धारण करने से पवित्र ऐसे धार्मिक पुरुषों के मलिन शरीर को देखकर भी उसमे ग्लानि नही करना और उसके गुणों मे प्रीति करना निर्विचिक्त्सा अंग कहलाता है !
            सभी मनुष्यों का शरीर एक से ही हाड ,मांस, मज्जा ,लहू से बना है मलमूत्र आदि का कुण्ड है ! इसमें एक के शरीर को भला व दूसरे को बुरा मानना भूल भरा है ! इस शरीर मे जितनी भी चीजे हैं कोई सारभूत नही हैं अगर इसमें सार है तो यह कि इसको पाकर तपश्चरण किया जाए ,इसे परोपकार मे लगा दिया जाए और ज्ञान संपादन किया जाए तभी यह आत्मा परम पावन पूनीत बनती है और जगत पूज्य बन सकती है ! हम देखते हैं कि रिद्धि धारी मुनियों के स्पर्श से यह भूमि परम पवित्र बन जाती है ! रिद्धि धारी मुनियों के शरीर को छूकर आई हुई वायु के स्पर्श से ही बड़े बड़े रोग दूर हो जाते हैं ! यह सब कारामात तपस्या की है !जो व्यक्ति जितना सदाचारी हो, जितना ज्ञानवान हो जितना विशवास पात्र हो ,वह उतना ही आदर पाता है ! इसीलिए जिसमे भी यह गुण हैं ,चाहे वह शरीर से गोरा हो ,काला हो रोगी हो या निरोगी हो ,लूला हो या लंगड़ा हो ,कैसा भी क्यों न हो ,बिना किसी घृणा के उसकी परिचर्या करना ही निर्विचिक्त्सा अंग का धारण करना कहलाता है  ! ऐसा करने से सर्व साधारण लोग भी सदाचरण आदि गुणों की तरफ आकर्षित होंगे !
              सँसार की सारी चीजें अपने -अपने स्वभाव के अनुसार परिणमन करती हैं ! इसमें कौन भली हैं ,कौन बुरी है ,कुछ नही कहा जा सकता ! अगर कोई बुरी चीज है या घृणा की जगह है तो मेरे सरीखे मनुष्य की आत्मा है जो कि अपने स्वभाव को (भली आदतों को ) भूल कर बुरी आदतों को अपना रहा है ! यह सोचकर घृणा करता है तो सिर्फ पापों से और किसी को  नही !
मूल रचना  :    "रत्न करंड  श्रावकाचार "मानव धर्म  आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी 
 हिन्दी व पद अनुवाद : आचार्य श्री ज्ञान सागर जी व आचार्य श्री विद्या सागर जी    

Saturday 24 March 2012

निकांक्षित अंग

           सँसार का सुख कर्मों के अधीन है ,अन्त सहित है ! जिसका उदय दुखों से अन्तरित है अर्थात ,सुख काल के मध्य मे भी दुखों का उदय आता रहता है और पाप का बीज है ,ऐसे इन्द्रिय जन्य  सुख मे आस्था और श्रद्धा नही रखता ,अर्थात सँसार के सुखों की आकांक्षा नही करना ,यह निकांक्षित अंग माना गया है !
         विषयों का  सुख पराधीन हैं ,वह भी दुःख से मिला हुआ होता है ! जितना भी सांसारिक सुख है वह सब शहद लपेटी हुई तलवार की धार को चाटने के समान है ! इस विषय भोग को भोगते समय मनुष्य खुदगर्ज होता है ! आगे के लिए पाप का उपार्जन करता है ! इन सब बातों को लेकर एक सत्य पथ का पथिक विषय सुख के भोगने से उदासीन रहता है ! उसे वह निस्सार समझता है और यह बात सही भी है ! जिसने त्याग मार्ग के आनन्द को अपने जीवन मे,ह्रदय मे  स्थान दे दिया  ,उसे वह विषय सुख अच्छा भी कैसे लग सकता है ! वह जल मे कमल की भान्ति अलिप्त रहता है अर्थात अपने जीवन मे गृहस्थ के कार्य को करते हुए भी उनसे अपने आप को भिन्न समझता है ! राजा के धोए ,पोंछे शरीर को अलंकारों से लदा देखकर उसे प्रेम नही करता और रंक के धुल धूसरित शरीर को देखकर उसे बुरा नही मानता ! यह सब कर्मों का खेल है ,यही सोचता है !
मूल रचना  :    "रत्न करंड  श्रावकाचार "मानव धर्म  आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी 
 हिन्दी व पद अनुवाद : आचार्य श्री ज्ञान सागर जी व आचार्य श्री विद्या सागर जी    

निशंकित अंग

सम्यक दर्शन के आठ अंगों मे पहला अंग है  निशंकित  !
           तत्व अर्थात वस्तु का स्वरुप ,यही है ,ऐसा ही है ,इससे भिन्न नही है और न अन्य प्रकार से सम्भव है ! इस प्रकार लोह निर्मित खडग आदि पर चढ़े हुए पानी के सद्रश सन्मार्ग मे संशय रहित अकंप ,अविचल रूचि या श्रद्धा को निशंकित  अंग कहते हैं !
          अर्थात चाहे कोई राजी हो या नाराज हो जाए ,संपत्ति प्राप्त हो या विपत्ति का सामना करना पड़े ,मरे या जीवे ,कैसा भी क्यों न हो किन्तु समझदार आदमी सत्य मार्ग से पीछे एक कदम भी नही हटता ! निशंक हो कर उस पथ पर डटा रहता है ,क्योंकि उसे दुनियादारी के सुख दुःख की जरा भी परवाह नही होती !
         हानि लाभ ,यश अपयश, जीवन मरण मे किसी प्रकार का हर्ष विषाद नही करता !
         विचारशील मनुष्य की निगाह हर समय औचित्त्य पर रहती है ,अतएव वह जगह की जगह व्यवस्था करता हुआ भी किसी प्रकार के झूठे प्रलोभन मे नही  फंसता और इसीलिए उसको किसी भी प्रकार की खुशामद करने की या किसी से डरने की जरूरत नही होती ! अगर वह डरता है तो अनुचित वर्ताव करने से ,अन्यथा मार्ग से और उसे पक्षपात होता है तो एक न्याय मार्ग से !
         ऊपर बताया जा चूका है कि आत्मोन्नति का सच्चा मार्ग विवेक रूप त्याग है ,जो अहिंसा का पूर्ण प्रतीक है और उसे स्वीकार करना ही मनुष्यत्व है ! उसे छोड़कर मनुष्यत्व कोई दूसरी चीज नही है ! इस प्रकार दृढ विश्वास पूर्वक सन्मार्ग पर तलवार की धार के समान बिलकुल बेधडक होकर चलना ,यह किसी सयाने आदमी का सबसे पहला गुण है !
मूल रचना  :    "रत्न करंड  श्रावकाचार "मानव धर्म  आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी 
 हिन्दी व पद अनुवाद : आचार्य श्री ज्ञान सागर जी व आचार्य श्री विद्या सागर जी    

Friday 23 March 2012


          अनादि काल से हमारे जीवन की कथा दुखों से भरी पड़ी हुई है ! सच्चा आनन्द हमें कभी एक क्षण के लिए भी नही मिला ! समग्र जीवन ऐसे ही बीत जाता है ! दुःख और पीड़ा हमारे जीवन के साथ जुडी  है ! इन्द्रियों के सुख मे लीन प्राणी शरीर के स्तर पर ही सोचता है ! कभी कोई जागा भी तो संसारी लोगों ने उसे फिर से सुला दिया ...सुलाने का प्रयास करते रहे  ,जगाने की बात हमने एक समय भी नही की ! जो जागता है ,वह धर्म के मार्ग पर चलने लगता है ,जिसे कुछ लोग पागल भी कहते हैं ! आप लोग धर्म के रास्ते पर चलने से डरते हैं क्योंकि विषय वासनाओं के अभ्यस्त हो चुके हैं ! आप लोग मृत्यु की बात करते हैं ,क्योंकि जीवन से परिचय नही हुआ अब तक !
आचार्य श्री 108 पुष्पदंत सागर जी
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Thursday 22 March 2012

निर्ग्रन्थ गुरु

            जो पंचेन्द्रिय की आशा से रहित हैं ,खेती ,पशुपालन  आरम्भ आदि से रहित हैं ,धन धान्य आदि परिग्रह से दूर हैं ,ज्ञान अभ्यास ,ध्यान समाधि और तपश्चरण मे लीन हैं ,ऐसे तपस्वी निर्ग्रन्थ गुरु प्रशंसनीय होते हैं ,पूजनीय होते हैं !
            जब  इन्द्रियाँ वश मे हो जाती हैं तो व्यक्ति को किसी की परवाह नही रहती ,न ही किसी वास्तु की जरूरत रह जाती है ! अत: वह पूर्व संगृहीत वस्तुओं को भी त्याग कर एक जन्मजात बच्चे के समान निर्विकार हो जाता है ! उस बच्चे मे और उन मे सिर्फ ये भेद रह जाता है कि बच्चा अबोध होता है औरवह सद्बोध .उस बच्चे को अपनी कोई खबर नही होती और ये अपने आत्म स्वरुप का चिंतन मनन हर समय करते रहते हैं ! इनकी दृष्टि मे महल और मशान .त्रण और कांचन ,सब एक समान हो जाते हैं ! मेरे द्वारा सँसार के किसी प्राणी को किसी प्रकार से पीड़ा न  हो ,चींटी से लेकर हाथी तक सभी जीव सुखी रहें ऐसी भावना रखते हैं !
मूल रचना  :    "रत्न करंड  श्रावकाचार "मानव धर्म  आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी 
 हिन्दी व पद अनुवाद : आचार्य श्री ज्ञान सागर जी व आचार्य श्री विद्या सागर जी    

Tuesday 20 March 2012

वीतरागी सर्वज्ञ अरिहंत प्रभु !

वह शास्ता बिना किसी अपने प्रलोभन के केवल निस्स्वार्थ भाव से राग के बिना भव्य जनो को हित का उपदेश देते हैं ! बजाने वाले शिल्पी के हाथ का स्पर्श पाकर ध्वनि करने वाला मृदंग क्या किसी से अपेक्षा रखता है ? 

सर्वज्ञ देव अपने निजी प्रयोजन के बिना ,ख्याति लाभ पूजा ,प्रतिष्ठा कि चाह के बिना भी सिर्फ भव्यजनों के पुण्योदय से उनके कल्याण का मार्ग उन्हें दिखाते हैं ! 
अपने प्रयोजनको लेकर किसी व्यक्ति की मदद की ,उसका कष्ट दूर किया इसमें कौन सी बड़ी बात हुई ! यह तो आम आदमी का काम है ! बड़ा आदमी तो वह है जो सहज रूप से ही दूसरों के कष्ट दूर करने के लिए तत्पर रहता है ! सत्पुरुष का तो सर्वस्व ही परोपकार के लिए होता है ,वे दूसरों का भला करके ही अपने जीवन को सफल बनाते हैं ! गाय का दूध औरों के ही काम आता है ,पेड दूसरों के लिए ही फल देता है मेघ बरसकर ही विश्व का कल्याण करते हैं !
संसार के प्राणियों को त्रस्त देख कर अपने द्याद्र दिल मे ये विचार करते हैं कि ये प्राणी कौन से उपाय से अपने इस दुःख संकट से मुक्तहो सकते हैं ! ऐसे हैं वीतरागी सर्वज्ञ अरिहंत प्रभु !
मूल रचना  :    "रत्न करंड  श्रावकाचार "मानव धर्म  आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी 
 हिन्दी व पद अनुवाद : आचार्य श्री ज्ञान सागर जी व आचार्य श्री विद्या सागर जी    

Monday 19 March 2012

अरिहंत परमात्मा

            ऐसे ही आप्त को परमेष्ठी ,परमज्योति ,वीतराग ,विमल ,सर्वज्ञ ,कृति ,आदि मध्य अन्त से रहित ,अनादि अनन्त और सार्व (सबका हितैषी ) शास्ता या मोक्ष मार्ग प्रणेता कहा जाता है !
           हे भगवन ! आप परमेष्ठी परा संसारातीता मतलब --यह सँसार दुनियादारी की आत्मा ,बाहिय के पदार्थ को बटोरकर अपने को भाग्यशाली समझता है ! परन्तु आप तो दुनिया की चीजों को लात मारकर ऐसे संपत्ति शाली ,महिमाशाली बने हैं कि सँसार के इन्द्र ,चक्रवर्ती सहित सभी महापुरुष आपको सिर झुकाते हैं ! आप परम ज्योति हैं सदा प्रकाशित रहने वाले हैं अर्थात सँसार के सूर्य चन्द्रमा भी किसी न किसी पदार्थ से  कभी प्रतिहत हो जाते हैं ! वीतरागी हो -आपकी दृष्टि मे न कोई बुरा है न भला ,सभी अपने कर्मों के अधीन होकर परिणमन करते हैं ! आप विमल हैं -आप मे किसी और दूसरी छेज का सम्मिश्रण नही है ! कृति हैं अर्थात आपको कुछ कार्य करने को शेष कुछ रहा नही  जो करना था कर चुके ! सर्वज्ञ हो -भुत ,भविष्यत ,वर्तमान को सम्पूर्ण रूप से जानने वाले हो आपने बताया कैसे मैंने मेरी इस आत्मा को रागादि दोषों को हटाकर   साधना से परमात्मा बना लिया है ! उसी प्रकार प्रत्येक जीवात्मा भी अपने को परमात्मा बना सकता है ,इसीलिए आप सार्व हो और आपका शासन सर्व हितकर है ! सभी उसका ह्रदय से स्वागत करते हैं ,अत: आप ही वास्तव मे शास्ता हो ,इत्यादि सुन्दर शब्दों से सभ्य व्यक्ति आप कि स्तुति करते हैं !
मूल रचना  : मानव धर्म  आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी 
हिन्दी व पद अनुवाद : आचार्य श्री ज्ञान सागर जी व आचार्य श्री विद्या सागर जी    

Sunday 18 March 2012

आग मे तप के ही जो निखरे

जिस प्रकार नौशाद्दर और सुहागा डालकर सुवर्ण को अग्नि मे अच्छी
 तरह तपाने से वह बिलकुल खोट रहित शुद्ध हो जाता है ! उसी प्रकार
 सत्पुरुषों की संगति को प्राप्त होकर अपने मन को पुनीत बनाने और
 बाहरी   आवश्यकता  को  रूप  तपस्या  के   द्वारा   हम अपनी 
आत्मा को भी शुद्ध निर्दोष बना सकते हैं ! ऐसा करने से हमारे साथ लगे
 हुए  रागादि दोष मिट  सकते हैं ! ऐसा करने से वह जीवात्मा परमात्मा
 बन जाता है ,जैसे कि पारस का संसर्ग पाकर लोहा भी स्वर्ण बन जाता
 है ! चन्दन के पेड के समीप रहने वाला नीम का पेड भी चन्दन ही हो 
जाया करता है !
आचार्य श्री     108    विद्यासागर जी महामुनिराज

Saturday 17 March 2012

चिंतामणि रत्न

                एक समय एक लकडहारे को लकडियाँ बीनते हुए एक चिंतामणि रत्न दिखा ! उसे देखकर उसने ये विचार किया कि यह पत्थर बड़ा सुहावना और चमकीला लगता है ! इसे घर ले चलता हूँ ,मेरा बेटा खेल लेगा ! घर आ कर उसने वह पत्थर बच्चे को खेलने को दे दिया ! उसे कहाँ पता था कि वह चिंतामणि रत्न है ,उसकी नजर मे तो वह पत्थर ही था ! उसे क्या पता था कि इससे मुझे मनवांछित वास्तु मिल सकती है मेरा दारिद्र्य दूर हो सकता है ! सायंकाल का समय हुआ तो बगैर दीपक जलाए ही  अद्भुत प्रकाश फ़ैल गया ! उसने सोचा चलो जो तेल जलता था ,दिये मे उसका खर्चा तो बचेगा  और वह अपनी दिनचर्या मे लग गया ! 
                वैसे ही जंगल जाता ,लकडियाँ बीनता ,बाजार मे बेच कर अपना जीवन यापन करता रहा !  एक दिन एक महाशय उसके घर के पास से गुजरे तो उन्होंने अद्वीतीय प्रकाश देख कर उस को कहा कि तुम चिंतामणि रत्न के मालिक हो तुम ऐसे दरिद्री का जीवन क्यों जी रहे हो ! आजमाना चाहो तो कुछ भी मांग कर देख लो ! उसने बहुत भूख कि अवस्था था ,खीर की इच्छा की ,खीर हाजिर हो गयी ! सर्दी का मौसम था ,शाल की इच्छा की ,शाल हाजिर हो गयी ! घर की आकंक्षा की, घर बन गया !
                     कहो लक्ष्मी किसका नाम हुआ ? ज्ञान का नाम ही तो लक्ष्मी हुआ ना ! जब तक उसे नही पता था तो कुछ नही था !जब पता चला तो पता चलते ही ठाठ हो गया ! वास्तव मे ज्ञान ही आनन्द है ,वह ज्ञान थोडा या अधिक किसी न किसी रूप मे हर प्राणी के पास होता है ! परन्तु परम प्रकर्ष अवस्था को प्राप्त परिपूर्ण ज्ञान जिस महानुभाव के पास हो ,,उसे वर्धमान समझना चाहिये ! इसीलिए वह दुसरे प्राणियों का उपास्य बन जाता है जिसका कि दूसरा नाम महावीर है ! जो कि अपना कल्याण करने के साथ -२ विश्व का कल्याण करने मे भी सहकारी हो जाता है !
आचार्य  श्री  108 विद्द्यासागर जी महामुनिराज

Friday 16 March 2012

मोह

कुलभूषणमुनिराज को जंगल मे आहार दिया था ,जो कि बाद मे 
केवल ज्ञान को प्राप्त कर मोक्ष गामी हुए और भगवान बने
                     मोह का अर्थ है संसार !  एक मोह भोगों से होता है ! वह संसार का कारण है ! एक मोह धर्म से होता है ,वह परम्परा से मुक्ति का कारण है ! जैसे सुबह की लालिमा और सांझ की लालिमा ,लालिमा तो दोनों हैं परन्तु दोनों मे जमीन आसमान का अंतर है ! सांझ की लालिमा मनो इस बात की ओर इंगित करती हुई प्रतीत होती है कि अन्धकार की  ओर चलो और भोगों मे मग्न हो जाओ ,अत: सांझ की लालिमा अन्धकार और भोग का प्रतीक है ,इसके विपरीत सुबह की लालिमा प्रकाश की ओर ले जाती है ,इस बात की ओर इशारा करती है कि समस्त भोगों को लात मार कर प्रकाश की ओर आ जाओ ! 
           आइये अब आपको मै राम के पास ले चलता हूँ ! उनके इस जीवन के पास जिससे उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम राम की उपाधि मिली ! किस प्रकार राम ने मोह को तोडा ! 
         सारे नगर मे यह बात फ़ैल चुकी थी कि राजगद्दी का सम्पूर्ण कार्यक्रम कैसे रात रात मे बदल गया ओर राम को राजगद्दी कि जगह चोदह वर्षों का बनवास मिला ! 
        हुआ क्या ? इस खबर को सुनते ही समस्त नगर वासियों को जैसे लकवा ही मार गया ! परन्तु इस पर राम की क्या प्रतिक्रिया हुई ? उनका चेहरा तो ये सुनते ही खिल गया जैसे मयूर का मन कजरारे मेघों को देखकर खिलता है ,जैसे चकोर चन्द्रमा को देखकर ,माली अपने उद्यान मे खिले रंग विरंगे पुष्पों को देखकर ,विद्यार्थी अपना उत्तम परीक्षा फल देखकर ,माँ अपने लाल को देखकर ,प्रेमी अपनी प्रेयसी को देखकर व उषा अपने भास्कर को देखकर प्रसन्न होती है ! उन्हें लगा जैसे आज अन्धे को आँखें मिल गयी ! 
            इधर समस्त नगर वासी ये कह रहे थे कि राम के पापों का उदय हो गया है ,अब राम हमारे बीच मे नही रहेंगें !और राम चिंतन कर रहे थे कि वान मे रहकर साधना का दुर्लभ अवसर मिला ! धन्य भाग हैं मेरे !
देखो भक्त कितना चालाक होता है ,इधर स्वयं भोगों को छोडना नही चाहता और राम को,भगवान को  प्राप्त करना चाहता है  ,अरे जब तुम्हे राम इतने ही प्रिय हैं तो भगवान के  साथ वन मे क्यों नही चले जाते ? वे वहाँ हर क्षण तुम्हारे साथ ही रहेंगे ! लेकिन नही हम वन मे नही जाना चाह्ते !
                यह  सब दृश्य राम अपनी खुली आँखों से देख रहे थे ,अनुभव कर रहे थे ,साथ ही वन को जाने कि तैय्यारी कर रहे थे ! अक्समात लक्ष्मण उनके सामने आ गए और कहने लगे क्या यह सब सच है जो मैं सुन रहा हूँ ? तब राम ने कहा -लक्ष्मण आज मेरा पुण्य का उदय आ गया है ! आज मुझे इस बात का पता चल गया है कि अवश्य ही मैंने पिछले जन्म मे कुछ पुण्य किया होगा जिससे मुझे साधु के सामान जीवन बिताने का सौभाग्य मिला है ! यहाँ इस भोगमय जीवन मे तो सिर्फ पाप ही होता है ,लोगों कि दृष्टि मे तो भोग भोगना ही पुण्य है और मेरी दृष्टि मे तो चेतन आत्मा को भोगना ,अर्थात साधु के समान जीवन यापन करना ही पुण्य है ! भोग सामग्री तो अल्प प्रयत्न से ही सबको सुलभ हो सकती है ,परन्तु साधु का जीवन ,साधु के समान जीवन सबके लिए इतना सरल नही है !
        शिक्षा ये है कि सुख मे भोगों मे मग्न न हों और दुःख की स्तिथि आने पर अपने कर्मों की निर्जरा का कारण  मान कर जीवन यापन करें  !
आचार्य श्री 108  पुष्पदंत सागर जी

Thursday 15 March 2012

प्रश्न : जो दिया बरसात मे बुझ गया ,
          उसे फिर जलाकर क्या करूँ ?
         जो स्वभाव विभाव मे खो गया ,
         उसे वापस बुलाकर क्या करूँ ?
         आप कहते हो तो मान लेता हूँ ,
         मै भी शक्ति रूप परमात्मा हूँ !
        जो परमात्मा स्वयं मे भटक गया ,
        उसे घर वापस बुलाकर क्या करूँ ?
उत्तर : जो खोया है उसे ही तो पाना है ! 
           जो सोया है उसे ही तो जगाना है ,
           इतना उदास क्यों होते हो साथी ?
          जो बुझा है उसे ही तो जलाना है !
           तुम मे अनन्त की संभावना है,
          उसे ही व्यक्त करके दिखाना है !
           जो भूला है निज घर को यहाँ ,
         उसे ही निज घर वापस आना है !
         है रात तो कल सुबह भी आएगी ,
        आज कली है ,कल फूल बन जायेगी !
        घबराओ मत इस अमावस की काली रात मे,
        कल सुबह नई रोशनी लेकर आएगी !
       रोओ मत चाँद तारों की घनी रात मे ,
       जागते रहोगे तो सुबह नई रोशनी ले आएगी !
      तुम अनन्त शक्ति के स्त्रोत  हो साथी ,
      आचरण करोगे तो जिन्दगी मुस्कुराएगी !
  
आचार्य श्री 108 पुष्पदंत सागरजी

Wednesday 14 March 2012

Sunday 11 March 2012

मोहिनी कर्म

                           कभी कभी आपके मन मे किसी के प्रति प्रेम भाव जाग्रत हो जाता है इसका कारण बस इतना सा ही होता है कि दोनों के मन मे किसी न किसी कोने मे एक दुसरे के प्रति प्रेम भाव विद्यमान है ! इसीलिए एक दुसरे का आभामंडल मोहित कर रहा है ! इसे भगवान महावीर ने मोहिनी कर्म का प्रभाव कहा है ! पूर्व जन्मों के उपार्जित कर्मों का कार्य एक दुसरे को आकर्षित करना है ! किसी किसी के प्रति आपके मन मे तीव्र प्रेम भाव ,स्नेह भाव अत्यंत उत्कृष्ट होता है ! कभी कभी हम सफर मे होते हैं तो सहयात्री की ओर बरबस ही आकर्षित हो जाते हैं (और कभी कभी घंटों के सफर के बाद भी हम नमस्ते भी नही कह पाते !) जिस व्यक्ति की ओर हम आकर्षित होते हैं वो भले ही हमसे अपरिचित हो लेकिन उसका मन अवश्य ही पूर्व परिचित होता है ! मन कहता है उस से कुछ बात करो !घुलो मिलो ! स्नेह का हाथ उसकी ओर बढाओ और बस किसी भी बहाने से आप परिचित हो जाते हैं !  और कभी कभी तो भीतर भीतर आक्रोश होने लगता है ,मन रोने लगता है ,जीवन भर आप स्मरण करते हैं कि एक ऐसी मूर्ति मिली थी ,एक ऐसी पवित्र आत्मा के दर्शन हुए थे कितना सुखद था उनका व्यवहार ! ये सब मोहिनी कर्म का ही परिणाम है !
आचार्य 108  श्री पुष्पदंत सागर जी "परिणामों का खेल" मे

Thursday 8 March 2012

कर्मों की होली

                मुनिराज पेड के नीचे बेठे थे ! ध्यानमग्न ! कर्मो की होली जला रहे थे ! दो श्रावक वहाँ से निकले ! तीर्थंकर प्रभु के समवशरण मे जा रहे थे ! वो समवशरण मे जाते ही भगवान से पूछते हैं ! भगवन ! हमारे नगर के राजा ने मुनि दीक्षा ग्रहण की है और वे पेड के नीचे बेठे ध्यान कर रहे है ! उनके संसार मे कितने भव शेष हैं?
तीर्थंकर  प्रभु की वाणी मे आया - उनके संसार मे इतने भव शेष हैं जितने उस पेड मे पत्ते !
श्रावक -प्रभु ! वो तो इमली के पेड के नीचे बैठे हैं ! इमली के पेड के पत्ते गिने जा सकते हैं क्या ?
भगवन ने कहा -हाँ उतने ही भव शेष हैं 
श्रावको ने पूछा -और भगवन हमारे ?
भगवन -तुम्हारे केवल सात व आठ भव शेष हैं !
          वे श्रावक क्या थे कि बस अहंकार मे फूल  गए कि मुनि के इतने भव शेष हैं जितने इमली के पेड मे पत्ते व हमारे केवल सात व आठ ! 
         सम्यक्दर्शन का अभाव था ! मुनि के पास आये और आते ही कहा ! अरे पाखंडी घर बार छोड़ कर किसलिए तपस्या मे लगे हो ,तुम्हे अभी संसार मे इतना भटकना है ,इतने भव धारण करने हैं जितने इस इमली के पेड मे पत्ते ! 
             मुनिराज मुस्कुराए  -सोचते हैं तीर्थंकर प्रभु की वाणी मिथ्या तो हो नही सकती ! कम से कम इतना प्रमाण तो मिल ही गया कि मुझे केवलज्ञान होगा ! मोक्ष सुख की प्राप्ति होगी ! मुनिराज ने  समाधिमरण किया व  पहले का निगोद आयु का बंध किया हुआ था सो निगोद मे चले गए ! और निगोद मे एक भव कितने समय का ? एक श्वांस मे अठरह भव होते हैं ,निगोद  मे इमली के पत्तों के बराबर भव काटने हैं ! एक सप्ताह के अंदर निगोद  मे गए भी और वापस भी आ गए ! निगोद से निकलकर उसी नगर मे मनुष्य भव धारण किया अर्थात आठ वर्ष अंतरमुहूर्त के बाद फिर मुनि गए और बैठ गए ध्यान मग्न उसी इमली के पेड के नीचे ! एक अंतर मुहूर्त अगले मनुष्य भव का ,आठ दिन निगोद आयु के व आठ वर्ष बालक अवस्था के ! वही श्रावक फिर उसी रास्ते से तीर्थंकर प्रभु के दर्शन को गुजरे ! समवशरण मे पहुँच कर प्रभु से वही सवाल ! 
भगवन कहते हैं -आठ वर्ष पहले जो मुनिराज वहाँ तप कर रहे थे ,ये मुनिराज उसी मुनि का जीव है जो निगोद मे अपनी बंध की हुई आयु पूरी करके फिर से मनुष्य भव मे आकर तप कर रहे हैं और जब तक तुम वहाँ वापस पहुंचोगे उन्हें केवल ज्ञान की प्राप्ति हो चुकी होगी !
ओह धिक्कार है हमारे इस जीवन को अभी हमें सात आठ भव मे न जाने कितना काल इस पृथ्वी पर बिताना है और धन्य है उन मुनिराज का जीवन जो हमारे जीते जी ही केवल ज्ञान को प्राप्त हो गए !
हम अहंकार मे रहते हैं कि मै मनुष्य हूँ और चींटी को रोंद देते हो पैरों से ! ध्यान रखना चींटी हमसे व तुमसे पहले मोक्ष जा सकती है अगर मरकर विदेह क्षेत्र का मनुष्य योनि का पहले  बंध किया हुआ होगा !  
मुनि श्री 108 सुधासागर जी महाराज "दस धर्म सुधा " मे

Wednesday 7 March 2012

स्त्री की सीख

                    एक संत तुलसीदास हुए ! उनकी शादी होगई ! शादी हो जाए तो पुरुष स्त्री के साथ हीरहना चाहता है ,स्त्री को छोड़ने का परिणाम नही करता ! लेकिन करे क्या ? आषाड सुदी नवमी को शादी हुई ! एक महीना पास रही ,रक्षा बंधन आ गया ! भाई अपनी बहन को लिवाने आ गया ! तुलसीदास को वह साले साहब ऐसे लगे जैसे ऊपर तो कह रहे कि आइये साले साहेब और अंदर से कि आ गए साले !  आ गए मेरी प्राण प्रिया को छुडाने के लिए ! जो लोलुपी होता है उसे एक क्षण को भी विषय भोग का विरह पसंद नही आता ! एक दो दिन बीते ! तुलसीदास से नही रहा गया ! अँधेरी रात ! बारिश की झड़ी ,बीच रास्ते मे नदी और उस पर नदी मे बाढ़ ! मुर्दे का सहारा लेकर नदी को पार कर गए ! सांप को रस्सी समझ कर ऊपर चढ गए और पत्नी के कमरे मे पहुँच गए ! पत्नी ने देखा तो कहा -धिक्कार है इस हाड मांस के शरीर मे इतना राग कि तुम अपने प्राणों की बाजी लगाकर आ गए ! इतना मोह मुझसे ,इस सात धातुओं के बने इस शरीर से ? भुजंग जिसे देखकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं तु इसे पकड़कर ही ऊपर आ गए?
                       इस  मोह को धिक्कार है ! यह हड्डियां और मांस अति नीरस है ,इतना प्रेम यदि तुम आत्मा रुपी राम से कर ले तो तेरे समस्त काम सुधर जाएँ ! 
                      तुलसीदास महान भव्य थे ! संत की योग्यता लिए हुए थे ! जाग गए ! खिड़की से कूदकर बनारस आ गए ,इतने बड़े राम भक्त बने कि पंचम काल मे वैष्णव सम्प्रदाय के सबसे बड़े संत के रूप मे प्रसिद्द हुए !

Tuesday 6 March 2012

प्याज के छिलके

                        नांगल (गृह प्रवेश ) की परम्परा आज की नही है बहुत पुरानी है ! मकान बनाने के बाद सारे रिश्तेदारों ,मित्रों को बुलाकर नांगल करवाया जाता है ! पांडवों ने भी खान्द्प्रस्थ को इन्द्रप्रस्थ मे परिवर्तित करके नांगल किया ! उसमे दुर्योधन भी आया ! ओह ! आह ! देखते ही दंग रह गया ! आश्चर्यचकित ,कहीं पर जाता है ,सोचता है यहाँ जल होगा ! अपना चूडीदार पजामा ऊपर को करता है ,कहीं गीला न हो जाए लेकिन वहाँ पर जमीन पाता है !जहाँ पर जमीन जैसा देखने मे आता है वहाँ swimming pool जैसा जलकुंड था ,अत: धडाम से गिर जाता है ! यही तो संसार है ,सारा का सारा संसार माया के जल से भरा हुआ है ! यह सारा संसार मृग मरीचिका है ,इंद्रजाल है !और इस इंद्रजाल मे तुम कब गिरते हो ,कहाँ उठते हो ,जहाँ गिरने की संभावना है वहाँ दौड जाते हो ,जहाँ दौड़ने की संभावना है वहाँ गिर जाते हो ! दुर्योधन सारी आत्माओं मे बैठा हुआ है ! हँसी हँसी मे द्रोपदी कह गई " अन्धे के पुत्र अन्धे ही होते हैं !" दुर्योधन कहता है -बता दूँगा ! अन्धे के पुत्र अन्धे कैसे होते हैं ! एक वाक्य -कटु वचन ,कठिन वचन ने एक शीलवती स्त्री के भरी सभा मे चीर हरण की नौबत ला दी ! दुर्योधन कहता है -द्रोपदी,हम तो अन्धे के पुत्र हैं,अन्धे ही हैं अन्धों के सामने नग्न होने मे कैसी शर्म ? एक वाक्य ने महाभारत करवा दी !कितना खून खराबा हुआ !  सारा झगडा मात्र बातों का है ! महाभारत को खोजो तो प्याज के छिलके हैं ! उतारते जाओ ! उतारते जाओ ! अन्त तक छिलके ही मिलेंगें ! कोई सार नही ! मूर्खों का युद्ध है ! 
        शिक्षा यही है, अगर हम अपने जीवन मे उतारे तो कि वाणी का संयम सबसे जरूरी है 
 मुनि श्री 108 सुधासागर जी महाराज "दस धर्म सुधा " मे

Saturday 3 March 2012

नौकर की सीख

                 एक नौकर राजा की फूलों की शैया प्रतिदिन सजाता था ! एक दिन राजा साहब किसी कार्य से गए और कह गए कि आज मै  थोड़ी देर से आऊंगा ! नौकर ने सोचा -मै प्रतिदिन राजा की सेज सजाता हूँ और राजा प्रत्दीन सोता है यहाँ ! आज राजा जी देरी से आयेंगे ! कुछ देर कम से कम मै भी तो इस शैया का आनंद लेकर के देखूं !कैसा आनंद आता होगा ,इस  फूलों की सेज के आनंद को मै भी तो चखूँ ? थोडा तो सोकर देख लूँ और वह जैसे ही शैय्या पर लेटा ,उसे नींद  आ गयी और नींद मे कब घंटों बीत गए पता ही नही चला !  पता ही नही चला कि कब राजा साहब आकर सिरहाने खड़े हो गए ! राजा साहब कहते हैं -अरे नादान ,मुर्ख तेरी ये मजाल कि मेरी सेज पर सो गया !  राजा ने आव देखा न ताव ,हंटर उठाया और दे मारा उसे ! वह तडपकर उठा ! सामने देखा ! राजा साहब ! अनर्थ हो गया ,अब तो प्राण दंड मिलेगा ! राजा ने एक और हंटर जमाया ! दूसरा हंटर पड़ते ही नौकर को हंसी आ गयी ! 
राजा -मुर्ख ,हँसता है ,ढीठ, बेशर्म ! 
और तपाक ! तपाक ! तपाक !चार पांच हंटर और जमा दिये !
वह नौकर और जोर से हँसने लगा ! सात आठ हंटर और मारने के बाद राजा के हाथ मे दर्द होने लगा !
नौकर की चमड़ी कई जगह से छिल गयी थी ! रक्त निकलने लगा था !
लेकिन फिर भी हँसे जा रहा था ! बेहताशा ! पागलों की तरह ! 
राजा -पागल हो गया है क्या ? क्या कारण है जो हँसे जो रहा है ?
नौकर -मै पागल नही हुआ हूँ राजन ,अभय दान दो तो मै बताऊँ ! 
राजा -जाओ ! तुम्हे मृत्युदंड के भय से मुक्त किया ! अब बताओ क्या कारण है जो इस तरह पागलों की तरह हँसे जा रहे हो ?
नौकर - राजन ! हंसी मुझे इसीलिए आ रही है कि मै इस फूलों की सेज पर कुछ घंटों के लिए सो गया ,उसकी सजा मे मुझे इतने कोडे पड़े ! और आप जीवन भर से इस शैया पर सो रहे हैं ,तो आपकी क्या दशा होगी ?मुझ पर आप इतना क्रोध कर रहे हैं कि कितना अनर्थ किया मैंने इस पर सोकर ! मै यही सोच रहा था कि चंद घंटे सोने पर मेरी ये दशा हुई कि सारे शरीर की चमड़ी उधड गयी और तुम सारी जिन्दगी से सो रहे हो ,सारी जिन्दगी से इन विषयों मे लीन रहे हो ,फिर आपकी क्या दशा होगी ?  राजन मुझे वह दृश्य दिखाई डे रहा है जहाँ इन पंचेन्द्रियों के भोगों मे लीन होने वालों के टुकड़े -टुकड़े कर दिये जाते हैं  ! एक नौकर सबक दे गया ,सीख दे गया ! राजा की आँखें खुल गयी ! तु सही कह रहा हैं ! वैराग्य हो गया इस नश्वर जीवन से ! सब छोड़ छाड कर चल दिया ! मुनिराज के पास जाकर दिगम्बर दीक्षा ले ली ! अपने कर्मों को काटने लगा !

Friday 2 March 2012

अंतर दृष्टि

               व्यक्ति जब अपनी खुली आँखों से सृष्टि को देखने लग जाता है तब सृष्टि उसका बाल भी बांका नही कर सकती और जब आँख मिचौनी कर इस सृष्टि को भोगते हो या छुपी आँखों से इस सृष्टि को देखते हो तो वह तुम्हारे लिए अनिष्टकारी बन जाती है ,छुप कर के इस  सृष्टि को देखते हो तो यह उसका सर्वनाश करती है ! जो इस सृष्टि को खुली आँखों से भोगता है ,जो  इस सृष्टि को खुली आँखों से देखता है ,उसे यह सृष्टि उठाकर तीन लोक के ऊपर ले जाकर विराजमान कर देती है ! चमड़े की आँखों से क्यों देखते हो ? अपने आप को देखना है तो अपनी आँखों से देखो ,अंदर की आँखों से देखो !
सभी मुनि,आर्यिकाओं ,साधु,साध्वियों,श्रावक,श्राविकाओं
को यथोचित नमोस्तु ,वन्दामि , मत्थेण वन्दामि ,जय जिनेन्द्र,नमस्कार
शुभ प्रात: