मेरा अपना इसमें कुछ भी नहीं .........

जो भी कुछ यहाँ लिखा है जिनेन्द्र देव और जैन तीर्थंकरों की वाणी है !

जैन साधुओं व साध्वियों के प्रवचन हैं !!

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Thursday 31 May 2012

कषाय की तासीर


अगर हम एक गेंद को जोर से फैन्क्तें हैं और सामने दीवार है तो वो उसी गति से ज्यों की त्यों हमारे पास आती है ,वही गेंद हम जोर से फैंकते हैं और सामने रेत का टीला है तो उसी मे धंस जाती है ! वही गेंद जब हम फैंकते हैं और सामने कीचड़ है तो हमारे ऊपर कीचड़ के छींटे भी लाती है ! हमें यह ध्यान रखना है कि हमने किस के प्रति कैसा व्यवहार किया है ,सामने वाले का राग द्वेष भी हमारे किये हुए कर्म से प्रभावित होकर के हमें भी वैसी ही फल पाने के लिए बाध्य कर देता है ! इसीलिए कर्म करने की जो कुशलता है वो हमें बनाकर रख लेनी चाहिये ! भले और बुरे दोनों ही प्रकार के संस्कार हमारे जीवन मे हैं ,ये संस्कार कौन डालता है हमारे भीतर ?
कभी कभी चाह्ते हुए भी हमारा मन अच्छा करने का सोचते हुए भी क्यों अच्छा नही कर पाता और कभी कभी हम दुसरे का बुरा सोचते हैं ,फिर भी हम दुसरे का बुरा नही कर पाते ! आखिर क्या बात है ? कभी क्भी हम सोचते हैं कि अपने जीवन को व्रत नियम और संयम से अनुशासित करें ,लेकिन नही कर पाते ! कभी कभी हम सोचते हैं कि अपनी दृष्टि को निर्मल बनाएँ लेकिन हमारी दृष्टि कि विकृति नही जाती है !
कोई तो है जो इन सब मे बाधा डालता है ! जो हमें थोड़े भी व्रतों को न होने दे ,वो भी एक तरह की कषाय है और जो हमें पूर्ण रूप से व्रती न होने दे वो भी एक तरह की कषाय है ! वो भी हमारे परिणामों की कलुषता है ! उस मन की कलुषता को हम् समझें तो सम्भव है कि वर्तमान मे ऐसे कर्म करें जिससे कि हमारा जीवन ऊँचा उठे ,अच्छा बने ! रेत का एक कण भी अगर खाने की चीजों मे मिल जाए तो सारा स्वादिष्ट भोजन का मजा भी किरकिरा हो जाता है ! यही स्थिति हमारे अपने परिणामों की कलुषता या कषाय की है !
कषाय की तासीर है कि वो हमें अपने आपे मे नही रहने देती ,चाहे कैसी भी कषाय हो ,क्रोध के रूप मे हमारे पास आए या अहंकार के रूप मे आए ,चाहे किसी चीज के प्रति हमें आसक्त कर लोभ के रूप मे आए या छल कपट के रूप मे आए ,चाहे किसी भी रूप मे आए ये हमें अपने आपे मे नही रहने देती !
मुनिश्री 108 क्षमा सागर जी की पुस्तक “कर्म कैसे करें”  से सम्पादित अंश

Wednesday 30 May 2012

मेरा आत्म विश्वास इतना कमजोर क्यों ?


एक राजा का राजकुमार बीमार था और वो उसके सिरहाने बेठे थे और इतने मे झपकी लग गयी ,तब उन्होंने सपने मे अपने बारह बेटे और एक बहुत बड़ा साम्राज्य देखा ! इतने मे राजकुमार बीमार जो था वो मरण को प्राप्त हो गया ! रानी की चीख सुनकर के उस राजा की आँख खुल गयी और आँख खुली तो देखा कि बेटा मर चूका है ! तब बहुत जोर जोर से हँसने लगा ,तो लोगो ने यही समझा कि पुत्र के वियोग मे पागल हो गए लगते हैं !
उनसे पूछने पर कि आप हँसे क्यों ? तब उन्होंने कहा कि आज मुझे मालूम पड़ा कि इस संसार की वास्तविकता क्या है की सिर्फ बंद आँख से ही सपना नही दीखता ,यहाँ तो खुली आँख से भी हम सपने ही देखा करते हैं ! मै उन बारह बच्चों को जो मै अभी स्वपन मे देख रहा था ,जिन्हें बिलकुल सच ही मान रहा था .वे मेरे चले गए स्वपन टूटने पर ,उनके लिए रोऊँ या कि जो मेरे सामने राजकुमार मरण को प्राप्त हो गया ,इसके लिए रोऊँ ! इसलिए मै हँस रहा हूँ !
ये सारी चीजें ये जो एक हमारा इस सँसार को देखने का नजरिया है ,इस पर कौन आवरण डालता है ,इसे कौन विकृत कर देता है मेरे ऐसे कौन से कर्म हैं जो मुझे सच्चे देव ,शास्त्र ,गुरु पर श्रद्धा नही होने देते ? जो मुझे सात तत्वों का श्रद्धान नही होने देते ? जो कि मेरे जीवन के लिए हितकारी हैं उन पर मेरा विश्वास क्यों नही बनने देते हैं ! आखिर ऐसा क्यों कि किसी और को तो ये विश्वास हो जाता है और मेरा स्वयं का विश्वास नही जमता ! मेरा आत्म विश्वास इतना कमजोर क्यों ? क्या चीज है जिससे अपनी निजी सम्पदा पर हमारा विश्वास नही होता ? क्या चीज है कि सच्चाई पर हमारा विश्वास नही होता ? और क्या चीज है जो कि सपने को सच मानने को मजबूर कर देती है ! हाँ पाने लायक कुछ भी नही है और जो पाने लायक है वो अपने भीतर है !
मुनिश्री 108 क्षमा सागर जी की पुस्तक “कर्म कैसे करें” से संपादित अंश

Tuesday 29 May 2012

सुख भी हैं और दुःख भी हैं


हम सभी जीवन मे अनुभव करते हैं कि सुख भी हैं और दुःख भी हैं और ये ठीक ऐसे है जैसे धुप छाँव ,सूर्य उगता भी है और अस्त भी होता है ! खेल खेलते हैं तो हार भी होती है और जीत भी ! लेकिन कोई इसमें से किसी एक को स्थायी मान लें वही उनके दुःख का कारण है ! जो दोनों के बीच ,दोनों को स्थायी नही मानता है और दोनों के बीच शांति से अपना जीवन जीता है ,वह बहुत आसानी से अपने जीवन को ऊँचा उठा लेता है !
जब जब मै किसी के दुःख मे निमित्त नही बनता हूँ ,कारण नही बनता हूँ और जितनी यथासंभव उसके सुख मे निमित्त बनता हूँ तो वास्तव मे ,मै अपने ही सुख का इंतजाम करता हूँ !
आचार्य भगवंतों ने लिखा कि प्राणी मात्र के प्रति अनुकम्पा ,”दया” नही लिखा ,दया मे तो गुंजाइश है कि आ गया दया का भाव ,बस आगे बढ़ गए ! नही ठीक वैसा ही दुःख महसूस हो रहा है जैसा दुसरे को हो रहा है इसीलिए अब मेरे से नही सहा जा रहा ! इसीलिए मै उसे बराबर बचाने का के लिए प्रयास करता रहूँ तब तो कहलाएगी अनुकम्पा !
रामचंद्र जी जब अयोध्या लौट आए थे ,राज्याभिषेक हो गया उनका ,गद्दी पर बैठ गए ,तब सब जाने लगे ,हनुमान भी जाने लगे ! सब तो कह रहे हैं,सुग्रीव भी कह रहे हैं कि जब भी कभी जरूरत पड़े ,तब हमें जरूर याद कर लेना ! हनुमान जी कुछ भी नही कह रहे हैं और जाने को तैयार हैं तो सीता जी ने धीरे से कहा कि आप तो इतने भक्त हैं आप कुछ भी नही कह रहे ,आप कुछ तो कहो ,आप भी वायदा तो करो कि जब कभी जरूरत पड़े तो .........तो क्या कहा था उन्होंने ,मै तो यही चाहता हूँ कि रामचन्द्र जी को मेरी जरूरत कभी न पड़े ! मतलब तुम बचना चाह्ते हो उनकी सेवा से ! नही ,मै उनकी सेवा से नही बचना चाहता ! उन पर जब दुःख आएगा तब न ,मेरी जरूरत पड़ेगी ! मै तो चाहता हूँ कि उन पर दुःख आए ही नही इसीलिए मेरी जरूरत ही न पड़े !
वास्तव मे तो अनुकम्पा यही है कि दुसरे को दुःख हो ही नही ,ऐसी भावना रहे कि मेरी जरूरत ही न पड़े और अगर किसी को दुःख है तो मै उसको दूर करने का प्रयत्न करूँ !  
 
मुनिश्री 108 क्षमा सागर जी की पुस्तक “कर्म कैसे करें” से संपादित अंश

Monday 28 May 2012

जैसा व्यह्व्हार हम दुसरे के साथ करते हैं वो हम तक वापस लौट कर के वापस आ जाता है !


कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर जी ने अपने जीवन का एक संस्मरण लिखा है कि उनके जीवन एक व्यक्ति से परिचय था ! उस व्यक्ति ने अपने बेटे की शादी मे बेटी वालों को इतना परेशान किया कि देखने वाले जो सज्जन पुरुष थे ,उनको यह सब अच्छा नही लगा और उन्होंने उसे कह भी दिया कि भाई ये तो ठीक नही है ,ये सब आपको शोभा नही देता ! उनका जबाब था कि अरे तुम नही जानते गन्ने को निचोडो तब ही तो उसमे से रस निकलता है !
दो तीन साल बीते ,उन्ही सज्जन जिनके बेटे का ब्याह हुआ था ,उन्ही की बिटिया का ब्याह हुआ और बेटे वालों ने जो उनकी जो दुर्दशा की वो लोगों से देखी नही गयी ! कुछ दिन बाद रास्ते मे मुहँ लटकाए वो फिर से मिल गए ! भैया, उदास क्यों हो ? क्या बात हुई ? हफ्ते भर मे बेटी वापस आ जायेगी ! कहने लगे ,अब तो बेटी वालों को कोई आदमी ही नही समझता ! हमने उनसे कहा तो नही पर एकदम से मन मे आ ही गया !ठीक तो है ,आदमी क्यों समझेगा ! आप ने भी तो बेटी वालों को गन्ने की उपमा दी थी ! आपने भी कहाँ उन्हें आदमी समझा था !
जैसा जैसा व्यह्व्हार हम दुसरे के साथ करते हैं वो हम तक वापस लौट कर के वापस आ जाता है ! अगर हम खुद के लिए दुःख नही चाह्ते हैं तो फिर हमें दुसरे के लिए भी दुःख का इंतजाम बंद कर देना चाहिये ! अगर अपने जीवन मे कोई संकट या विपत्ति आती है तो उसके लिए भी दूसरों को दोषी ठहराना बंद कर देवें ! और एक बात कि दुसरे के सुख मे दुखी होने की आदत छोड़ देवें और सिर्फ इतना ही विचार करें कि मैंने ही कुछ ऐसा किया होगा कि जिससे मेरे जीवन मे यह संकट आया है ! अगर सही कर्म करने की कुशलता सीख लें तो हमारा जीवन जरूर से बहुत ज्यादा अच्छा बनेगा !
अपने दुःख से दुखी लोग तो सँसार मे बहुत मिल जायेंगे ,दुसरे के दुःख से दुखी कुछ ही मिलेंगे ! ऐसे लोग तो महान है जो दुसरे के दुःख को देख कर दुखी हैं ,अपने भीतर झाँक कर देखें हम ,कि कितने क्षण ऐसे होते हैं जब मै अपने ही किसी अभाव की वजह से दुखी होता हूँ और कितने क्षण ऐसे होते हैं कि दुसरे के जिसमे मै दुसरे के दुःख को देख कर दुखी महसूस किया हो अपने को , अधिकांश क्षण तो ऐसे होते हैं कि दुसरे के सुख को देखकर ही दुखी होने मे ही गुजर जाते हैं !
मुनिश्री 108 क्षमा सागर जी की पुस्तक “कर्म कैसे करें” से संपादित अंश

Saturday 26 May 2012

श्रुत पंचमी और उसका महत्व


श्रुत पंचमी और उसका महत्व
भगवान महावीर के निर्वाण होने तक जिनवाणी अखंड रूप मे थी ! जिस किसी को भी यह ज्ञान दिया जाता था उसे वह सम्पूर्ण याद हो जाता था ! मनुष्य की स्मरण शक्ति बहुत तेज थी ! महावीर प्रभु के मोक्ष जाने के 683 वर्ष के बाद उनकी 32 वीं पीढ़ी परम्परा मे  आचार्य धरसेन जी हुए ! वह सम्पूर्ण श्रुत अर्थात जिनवाणी के ज्ञानी थे !
आचार्य धरसेन जी गिरनार पर्वत की तलहटी मे विराजमान थे ! महान तपस्वी थे ! उन्होंने अपना समय निकट आया जान ये  विचार किया कि जिन धर्म तो पंचम काल के अन्त तक रहेगा ही और मुनि व श्रावक परम्परा भी रहेंगी  ! इसीलिए इस जिनवाणी को लेखनी बद्ध किया जाए जिससे आने वाली पीढ़ियों को यह जिनवाणी प्राप्त हो सके ! वे यह अच्छी तरह से जानते थे कि धर्म व संस्कृति के रक्षक हैं शास्त्र ! धरसेन  जी ने आंध्रा प्रदेश मे विराजमान आचार्य महासेन जी को सन्देश भेजा और दो सुयोग्य शिष्यों को अपने पास भेजने के लिए निवेदन किया !
कुछ दिन गुजरने के पश्चात उन्हें स्वपन मे दो सुन्दर बैल अपने सामने आते दिखाई दिये ! उन्होंने अपने दिव्य ज्ञान से यह जान लिया कि दो मुनिराज यहाँ पहुँच रहे हैं ! ( आचार्य श्री के दीक्षा गुरु आचार्य श्रीकुन्थुसागर जी की भद्रबाहु संहिता मे स्वपन विज्ञान का विस्तार से वर्णन है ,ये बात आचार्य गुप्तिनंदी जी ने ही प्रवचन के दौरान बतायी )
धरसेन जी की नींद खुली तो सन्देश प्राप्त हुआ कि दो युवा दिगम्बर साधु दर्शन की अनुमति चाह्ते हैं ! गुरु ने स्वीकृति भेजी ,वो तो वैसे ही शिष्यों का इंतजार कर रहे थे ! दोनों शिष्यों की परीक्षा के लिए दो मन्त्र दिये ! मत्र का अर्थ है जो हमारे मन को मंत्रित करे वह मन्त्र है !
एक शिष्य के मन्त्र जाप करने से कानी (एक आँख वाली) देवी प्रकट हुई व दूसरे शिष्य के मन्त्र जाप करने से दो दाँत अधिक वाली देवी प्रकट हुई ! मुनियों ने मंत्रों की समीक्षा की ! पहले मन्त्र मे एक अक्षर कम था व दुसरे मन्त्र मे एक बीजाक्षर ज्यादा था ! मुनियों ने अपने व्याकरण ज्ञान से मंत्रो को शुद्ध किया व फिर से जाप प्रारंभ किया ! दो सुन्दर देवियाँ प्रकट हुई ! उन्होंने प्रकट होते ही ये कहा क्या आज्ञा है गुरुदेव ? तब मुनियों ने उन्हें वापस लौट जाने को कहा और सम्मान से कहा कि हमें ये मन्त्र आचार्य जी द्वारा जाप करने के लिए दिये गए थे ! और कोई प्रयोजन नही था !
दोनों मुनि वापस गुरुदेव के पास पहुंचे ! सम्पूर्ण वृतांत कहा ! गुरु ने उन्हें कहा कि आप परीक्षा मे सफल हुए ! आचार्य धरसेन ने सम्पूर्ण द्वादशांग जिनवाणी का ज्ञान उन दोनो मुनिराज को दिया जिनका नाम मुनिश्री पुष्पदंत व मुनिश्री भूतबलि था ! ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को के दिन लेखन कार्य पूरा हुआ ! उसी दिन से यह दिन श्रुत पंचमी कहा जाने लगा !
यह पोस्ट आचार्य श्री गुप्तिनंदी जी के आज रोहतक मे हुए प्रवचन से लिया गया है ! जो त्रुटियाँ हैं वो मेरी की हुई है और जो भी ज्ञान वर्धन है वो आचार्य श्री का दिया हुआ है !