मेरा अपना इसमें कुछ भी नहीं .........

जो भी कुछ यहाँ लिखा है जिनेन्द्र देव और जैन तीर्थंकरों की वाणी है !

जैन साधुओं व साध्वियों के प्रवचन हैं !!

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Friday 28 September 2012

दसलक्षण महाविधान एवं रत्नत्रय श्रावक संस्कार शिविर


“आयु का तेल देह के दीयों से रफ्ता – रफ्ता  कम हो रहा है , उम्र घट रही है लोग कहते बढ़ रही है” आर्यिका माँ स्वस्ति भुषण जी कही ये पंक्तियाँ बरबस ही याद हो उठती हैं ,जब कुछ लिखने बैठा हूँ रत्नत्रय श्रावक संस्कार शिविर व दसलक्षण विधान के बारे में अपने संस्मरण !
उम्र शरीर पर अपना असर छोड़ ही रही है !सायंकालीन ध्यान में लगभग दो –अढाई घंटे एकासन में बैठना मेरे लिए असंभव सा रहा !पूर्ण एकाग्रता के बावजूद मुझे दो तीन बार आसन बदलना ही पड़ा ! और जैसे ही उस दिन आचार्य  गुरुवर  गुप्तिनंदी जी के  शब्द मेरे कानों में पड़े कि आज आप झूमकर ,नाचकर ,गाकर किसी भी तरह ध्यान  और भक्ति कि गहराई में उतर सकते हैं तो जैसे मेरे मन चाही पूरी हो गयी हो !
मुनिश्री चंद्रगुप्त और आर्यिका माँ आस्थाश्री जी की मधुर ममतामयी वाणी में “ओम नम: अर्हते ऋषभ जिनाय” सुनते सुनते मै पहुँच गया अक्टूबर 1991 में जब इसी जैन जतीजी के प्रांगन में गणिनी आर्यिका माँ ज्ञानमती जी द्वारा रचित “कल्पद्रुम महामंडल विधान” आचार्य गुरुवर कुंथू सागर जी के सान्निध्य में चल रहा था ,जिसमे मुझे भी आचार्य श्री का सान्निध्य मिला था ,कि समाचार आया कि भिवानी के पास ग्राम रानीला में प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ प्रभु अन्य तेइस तीर्थंकरों के साथ एक दिव्य मनभावन रूप में भूगर्भ से प्रकट हुए हैं ! पास ही में एक मनोहारी प्रतिमा माँ चक्रेश्वरी की भी प्रकट हुई है ,तब सारा वातावरण उल्लास से भर गया था , ये सोचते सोचते हुए मै कब खड़ा हुआ और झूमने ,नाचने लगा ये मुझे खुद भी नहीं पता चला ! बस मुनिश्री और आर्यिका माँ श्री की आवाज ही कानों में सुनाई दे रही थी ,बाकी सब जैसे खो गया था !
यशोधर मुनि पर राजा श्रेणिक द्वारा किये हुए उपसर्ग के दृश्य उपस्थित होते ही मुझे वो क्षण समरण हो आया जब मैंने पहली बार अपनी याददाश्त में किसी नग्न दिगम्बर साधु के चरण स्पर्श किये थे और वह इस युग के महान दिगाम्बराचार्य  देशभूषण जी थे जिनका दिव्य आशीर्वाद मुझे 8-9 वर्ष की उम्र में ही प्राप्त हुआ था ! आचार्य श्री उन दिनों कश्मीरी गेट ,दिल्ली में विराजमान थे व मुझे उनके दर्शन का सौभाग्य अपने चाचा जी के साथ जाने पर हुआ था !आज भी उस क्षण को याद करके मै रोमांचित हो उठता हूँ ! धन्य है दिगम्बर गुरुओं का तप और साधना और धन्य है इनका जीवन !
कमठ के जीव द्वारा मुनि श्री पार्श्वकुमार पर उपसर्ग व उनकी समता व सरलता से कर्मों के बंधन को काट डालना ,मुनिश्री सुकुमाल पर पूर्व भव की बैरी गीदडी द्वारा उनके अंग –अंग का भक्षण ,महासती सीता की अग्नि परीक्षा , महासती चंदनबाला द्वारा तीर्थंकर प्रभु महावीर को आहार दान के दृश्य भी आँखें नम कर गये !
अंतिम दिन में आचार्य श्री द्वारा गौतम गन्धर प्रभु के द्वारा कहा गया महाप्रतिक्रमण करवाया गया जिसके द्वारा  विशेष रूप से हजारों की संख्या में लोगों ने अपने कर्मों की निर्जरा की !
मेरे पास आचार्य गुप्तिनंदी जी चरणों में नमन ,वंदन,अभिनन्दन के लिए शब्द नहीं हैं कि मै उनका आभार प्रकट करूँ कि उनके व्यक्तिगत रूप से मुझे आह्वान न होता तो शायद मै अपने जीवन के इस बेहद रोमांचकारी अनुभव से रिक्त रह जाता !ऐसे ही महान व्यक्तित्व के लिए  किसी कवि की ये पंक्तियाँ याद आती हैं .......
है   समय   नदी  की  धार  ,सभी बह  जाया  करते   हैं ,
है समय बड़ा बलवान प्रबल ,पत्थर झुक जाया करते हैं !
हमने देखा है लोग समय के चक्कर खाया करते हैं ,
कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो इतिहास बनाया करते हैं !!
और जैसे आचार्यश्री का ये आह्वान हो कि .......
प्रभु का दर्शन पाना है तो ,खोज रहे क्यों धरती अम्बर ?
निर्मल ज्योति विराजित हैं प्रभु ,सदा काल से तेरे अंदर !!

Wednesday 26 September 2012

आलोचना पाठ व प्रायश्चित पाठ


आलोचना पाठ
हे नाथ ! मैंने प्रमादवश हैं, दोष भारी जो किये!
             इसी कारण पाप ने हैं ,दुःख मुझको बहु दिये !!
अब शरण आया मै तुम्हारी ,दोष मेरे दूर हों!
           करके दर्श प्रभु आपका, मिथ्यात्व मेरा चूर  हो !!
संकट सहूँ निर्भय बनूँ ,आशीष यदि हो आपका!
             दे दो चरण रज आपकी तो नाश होवे पाप का !!
ग्रह कार्य सम्बन्धी क्रिया में ,मुझसे हुई हिंसा महा !
            मन ,वचन अरु काय से ,ना की दया मैंने अहा !!
स्वार्थवश मैंने न जाने पाप कितने हैं किये !
               खुद बचाया आपको और दुःख दूजे को दिये !!
इन्द्रियों का दास बन मै, हूँ गया इनसे ठगा !
          इसलिए यह पाप मुझको ,दे रहा क्षण क्षण दगा !!
देव ,जिनवाणी ,गुरु की भक्ति नित कर्ता रहूँ !
            शक्ति दो हे नाथ मुझको मै दिगम्बर व्रत धरूं !!
 प्रायश्चित पाठ
शत शत प्रणाम करते ,आशीष हमको देना!
                दोषों को दूर करके ,अपराध क्षम्य करना !!
मन से ,वचन से ,तन से, अपराध पाप करते !
        कृत कारितानुमत से ,दुःख शोक क्लेश सहते !!
चारों कषाय करके ,निज रूप को भुलाया !
               आलस्य भाव करके ,बहु जीव को सताया !!
भोजन ,शयन ,गमन में ,पापों का बंध बाँधा !
                      अज्ञान भाव द्वारा ,अज्ञात पाप बाँधा !!
दिन रात और क्षण क्षण ,अपराध हो रहे हैं !
                इस बोझ से दबे हम ,पापों को ढो रहे हैं !!
गुरुदेव की शरण में प्रायश्चित लेने आये !
         मुक्ति का ‘राज’ पाने ,भव रोग को नशाये !! 
आर्यिका माँ राजश्री द्वारा रचित
संघस्थ आचार्य श्री गुप्तिनंदी जी

Tuesday 25 September 2012

शरणागत की शरणा .


शरणागत की  शरणा .......
पुंडरिकीनी  नगर के राजा धनरथ के दो रानियों प्रियामती व मनोरमा से दो पुत्र थे जिनका नाम क्रमश: मेघरथ व द्रडरथ था ! समय बीतने के साथ राजा धनरथ ने संयम को धारण किया व अपने ज्येष्ठ पुत्र मेघरथ  को राज्य का भार सौंपकर वन में विहार कर गये !
राजा मेघरथ बहुत न्यायप्रिय व प्रजा वत्सल थे ! उनकी ऋद्धि सिद्धि का कोई पार नहीं था ! देवांगनाओं के समान सर्वांग सुन्दर रानियाँ उनके अन्त:पुर में थी ! परन्तु उन्हें न तो राज्य का मोह था न ही रानियों पर और न ही सँसार के राग रंग पर !
मेघ रथ की राज्य सभा धर्मसभा कहलाई जाती थी ! वहाँ नित्य पुण्य पाप के भेद खोले जाते ! कर्मों के सम्बन्ध में विचार होता और पूर्व जन्म के संस्कारों की अनिवार्यता बतलाई जाती !
एक समय जब राजा और दरबारी धर्म चर्चा में लगे थे तब एक कबूतर फडफडाता हुआ जैसे की यह कह रहा हो ‘मेरी रक्षा करो ,मेरी रक्षा करो’ करता हुआ राजा मेघरथ की गोद में आकर गिरा !
राजा कुछ सोच पाता उससे पहले ही धडधडाता हुआ सा एक बाज राजा के सामने आकर उपस्थित हो गया और बोला –राजन ! यह कबूतर मुझे दे दे !यह मेरा भक्ष्य है ,मै बहुत भूखा हूँ !
भय से कांपता हुआ कबूतर बोला –राजन !मुझे बचाओ ,मै आपकी शरण में आया हूँ ! राजा सीधा खड़ा हुआ ! बाज को संबोधित करते हुए कहा –पक्षीराज ! मै क्षत्रिय हूँ ! तुम्हे भोजन के लिए जो वस्तु चाहिये ,घेवर ,लड्डू इत्यादि वह मै उपलब्ध कराने को तैयार हूँ लेकिन यह कबूतर मै तुम्हे नहीं दे सकता !
राजन ! मै वनवासी हूँ ! मेरा भोजन तो मांस है और वह भी जो मै खुद शिकार करूँ य मेरे सामने मुझे काट कर दिया जाए ,वही मांस मुझे चाहिए !
राजा ने कहा –अति उत्तम ! मै तुम्हे कबूतर के भार के बराबर वजन तोल कर अपना मांस   तुम्हे दूँ तो पर्याप्त रहेगा ना ?
अवश्य चलेगा !परन्तु हे मुग्ध नृप –एक पक्षी के लिए तु हजारों का जन पालक ,तु अपने जीवन को दांव पर क्यों लगाता है ?
पक्षिराज –यह जीवन किसका शाश्वत रहा है ? आज नहीं तो कल यह देह तो चली ही जायेगी !मै मानव जीवन में शरणागत का घातक कहलाऊं ,यह मुझे कदापि मंजूर नहीं ! शरणागत के लिए मेरा जीवन जाता है तो चला जाए इस पर मुझे कोई दुविधा नहीं !
राजा ने सेवकों को आज्ञा दी और तराजू मंगवाया ! एक पलड़े में कांपता हुआ कबूतर रखा और दुसरे में अपनी जांघ काट कर मांस के टुकड़े रखे !
समस्त परिवार जन व उपस्थित जन रो पड़े और राजा को कहा –राजन ! आप तनिक तो विचार कीजिये ! आपके द्वारा हजारों का पालन होता है ! आप एक कबूतर को बचाने के लिए अपने प्राणों का बलिदान करोगे तब हमारे जैसे हजारों लोग बर्बाद हो जायेगें !
आप घबराएं नहीं और मुझे अपने पथ से भ्रष्ट न करें ! जो व्यक्ति शरण में आये हुए एक कबूतर की रक्षा नहीं कर सकता वह हजारों मनुष्यों की रक्षा कैसे करेगा ? राजा ने दृढ़ता से कहा !
राजन ! तत्व चर्चा छोडो ,भूख से मेरे प्राण पखेरू उड़ने को हैं  , जल्दी से मुझे कबूतर के वजन के बराबर मांस दो –बाज ने गंभीरता से कहा !
राजा ने तीव्रता से चाक़ू चलाया और दूसरी जांघ काट कर मांस पलड़े में रख दिया ! आश्चर्य कि पलड़ा फिर भी झुका ही नहीं ! राजा बगैर कुछ सोचे अधिक विचार न करते हुए तुरंत खुद पलड़े में जाकर बैठ गया ! उसके मुख पर तो केवल एक ही बात थी कि शरणागत की रक्षा के लिए मेरे प्राणों की कोई कीमत नहीं !
बाज बोला –राजन !मुझे तेरी यह देह नहीं चहिये ! मुझे तेरे को व राज्य को बर्बाद नही करना है !मै तो मांग रहा हूँ बस यह कबूतर ,कृपया इसे मुझे सौंप दें ! यदि यह तेरे पास नहीं आया होता तब भी तो मै इसे मार कर अपना शिकार बनाता ही न ?
राजा ने कहा –विहंग राज ! इस नश्वर देह से इस कबूतर की रक्षा होती है तो तुम इस देह को काट कर मुझ पर उपकार करो  और इस कबूतर को जीवन दान दो !
इतने में ही आकाश से पुष्प वृष्टि होने लगी व सारा वातावरण राजा मेघ रथ की जय के नारे से गुंजायमान हो गया ! राजा की सभा में आकर एक देव ने उपस्थित होकर कहा ! राजन धन्य हैं आप और धन्य है आपकी न्याय प्रियता और प्रजा वत्सल भाव !
एक राजा मेघ रथ थे जो एक कबूतर की रक्षा के लिए अपने प्राणों को न्योछावर करने को तैयार हो गये थे और आज हम अपने सार्वजनिक जीवन में देखते हैं तो जो हमारे पालन कर्ता हैं सरकार में मंत्री हैं वही आज कत्लखाने खोल रहे हैं और निरीह ,मूक और निर्दोष प्राणियों का वध कर रहे हैं ! ये शर्मनाक कृत्य करने वालों को इतिहास कभी क्षमा नहीं करेगा !
आज हमारी सरकार मकडोनालड  जैसी विदेशी कंपनियों को बढ़ावा दे रही है जो भोले भाले और शाकाहारी मनुष्यों को भी तरह तरह के विज्ञापन दिखाकर मांसाहार की ओर आकर्षित कर रहे हैं ! राष्ट्रीय कार्यक्रमों में अंडे का विज्ञापन धडल्ले से दिखाया जा रहा है ! यह बहुत शर्मनाक है ! अगर शाकाहारी समाज अभी नहीं जागा तो वह दिन दूर नहीं जब हमारी आने वाली पीढियां शाकाहार को भूल जायेंगी और फिर हमारे पास पछतावे के अलावा और कुछ नहीं बचेगा !