भयानक जंगल में वे दोनों मिले-अचानक और खोये-खोये से|पुरुष ने कहा –
‘आओ अब हम साथ रहें|’ नारी ने सिर झुका लिया|पुरुष ने उसके कोमल हाथ अपने बलिष्ठ बाहुओं में थाम लिये|पुरुष ने कहा –मै कठोर हूं|आदेश देना मेरा स्वाभाव है और उसके विरुद्ध कुछ भी सुनने कि मुझे आदत नहीं है|क्या तुम मेरे साथ रह सकोगी?नारी ने कहा –“मै कोमल हूं|जीवन में उफान लाती हूं और उसे अपने में समाती भी हूं|मै सदा एक मुद्रा में रहने वाले पर्वत का शिखर नहीं,लहरों में इठलाने वाली सरिता हूं |”पुरुष ने कहा –“तब तुममें मुझे अपना सेवक बनाकर रखने की क्षमता है|”
मुनि श्री 108प्रमाण सागर जी की पुस्तक “दिव्य जीवन का द्वार”से
सभी मुनि,आर्यिकाओं,साधु,साध्वियो,श्रावक श्राविकाओं
को मेरा यथोचित नमोस्तु,वन्दामी,मथे वन्दना,जय जिनेन्द्र,नमस्कार
bahut hi achhchha btaya hai.dhanyawad.
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