मेरा अपना इसमें कुछ भी नहीं .........

जो भी कुछ यहाँ लिखा है जिनेन्द्र देव और जैन तीर्थंकरों की वाणी है !

जैन साधुओं व साध्वियों के प्रवचन हैं !!

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कोई कापीराइट नहीं ..........

Friday, 28 June 2013

माँ



जय जिनेन्द्र बंधुओं ! प्रणाम ! नमस्कार !शुभ संध्या !

अपने हो या पराये
भूखे प्यासे बच्चों को देख
माँ के ह्रदय में दूध रूक नहीं सकता
बाहर आता ही है उमड़कर
इसी अवसर की प्रतीक्षा रहती है
उस दूध को
प्राय: पुरुषों से बाध्य हो कर ही
कुपथ पर चलना पड़ा है स्त्रियों को
परन्तु कुपथ सुपथ को परख करने में
प्रतिष्ठा पायी है स्त्री समाज ने
इनकी आँखें है   करूणा  की कारिका
शत्रुता छू नहीं सकती इन्हें
मिलनसारी मित्रता
मुफ्त मिलती रहती इनसे
यही कारण है कि
इनका सार्थक नाम है नारी
यानी “न अरि”  नारी
अथवा ये आरी नहीं है
सो .........नारी !
आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महा मुनिराज मूक माटीमें

Thursday, 27 June 2013

धरा पर प्रलय



जय जिनेन्द्र बंधुओं ! प्रणाम ! नमस्कार !शुभ संध्या !

जब कभी धरा पर प्रलय हुआ
यह श्रेय जाता है केवल जल को
धरती को शीतलता का लोभ दे
इसे लूटा है
इसीलिए आज
 यह धरती धरा रह गयी
न ही वसुंधरा रही न वसुधा
और जल
यह जल रत्नाकर बना है
बहा बहा कर
धरती के वैभव को ले गया है
पर सम्पदा की और दृष्टि जाना
अज्ञान को बताता है
और
पर सम्पदा को हरण कर संग्रह करना
मोह मूर्छा का अतिरेक है
यह अति निम्न कोटि का कर्म है
स्व पर को सताना है
नीच नरकों में जा जीवन बिताना है
यह निन्द्य कर्म करके
जलधि ने जड़ धी का ,
बुद्धिहीनता का परिचय दिया है
अपने नाम को सार्थक किया है !
आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महा मुनिराज मूक माटीमें

Tuesday, 25 June 2013

संगीत



जय जिनेन्द्र बंधुओं ! प्रणाम ! नमस्कार !शुभ संध्या !
सुख के बिंदु से ,उब गया था यह
दुःख के सिन्धु में डूब गया था यह
कभी हार से सम्मान हुआ इसका
कभी हार से अपमान हुआ इसका
कहीं कुछ मिलने का लाभ मिला इसे
कहीं कुछ मिटने का क्षोभ मिला इसे
कहीं सगा मिला , कहीं दगा

भटकता रहा अभागा यह
परन्तु आज
यह सब वैषम्य
मिट से गए हैं
जब से मिला यह
मेरा संगी संगीत है
स्वस्थ जंगी जीत है
आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महा मुनिराज मूक माटीमें

Sunday, 23 June 2013

बदले का भाव



जय जिनेन्द्र बंधुओं ! प्रणाम ! नमस्कार ! शुभ संध्या !

बदले का भाव
वह दलदल है
कि जिसमे
बड़े बड़े बैल ही क्या
बलशाली गजदल तक
बुरी तरह फंस जाते हैं
और गल कपोल तक
बुरी तरह धंस जाते हैं !
बदले का भाव
वह अनल है
जो जलाता है
तन को भी चेतन को भी
भव-भव तक !
बदले का भाव
वह राहू है
जिसके
सुदीर्घ विकराल गाल में
छोटा सा कवल बन
चेतन स्वरुप भानु भी
अपने अस्तित्व को खो देता है !
 आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महा मुनिराज “मूक माटी” में