जय जिनेन्द्र बंधुओं ! प्रणाम ! नमस्कार !शुभ संध्या
!
जब कभी धरा पर प्रलय हुआ
यह श्रेय जाता है केवल जल को
धरती को शीतलता का लोभ दे
इसे लूटा है
इसीलिए आज
यह धरती धरा रह गयी
न ही वसुंधरा रही न वसुधा
और जल
यह जल रत्नाकर बना है
बहा बहा कर
धरती के वैभव को ले गया है
पर सम्पदा की और दृष्टि जाना
अज्ञान को बताता है
और
पर सम्पदा को हरण कर संग्रह
करना
मोह मूर्छा का अतिरेक है
यह अति निम्न कोटि का कर्म
है
स्व पर को सताना है
नीच नरकों में जा जीवन
बिताना है
यह निन्द्य कर्म करके
जलधि ने जड़ धी का ,
बुद्धिहीनता का परिचय दिया
है
अपने नाम को सार्थक किया है !
आचार्य
श्री 108 विद्यासागर जी महा मुनिराज “मूक माटी” में
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