जय जिनेन्द्र बंधुओं !
प्रणाम ! नमस्कार ! शुभ संध्या
नाटक
सकल सँसार
एक रंगमंच
जहाँ निरंतर
है धुप छाँव
आशा – निराशा
सुख –दुःख
जन्म – मृत्यु
के खेल चल रहे !
आ नायक बन
दिखा नित्
नूतन खेल ! तोड़ जीवन !
जागृत कर विवेक
इनके स्वरुप को जान !
पहचान ! अनुभव कर
और उसके पास हो जा
कर्तापन को कर बिदा
साक्षी बन ,
पा स्वयं का खुदा ,
नाटक कर
पर उसमे डूब मत
दृष्टा में डूब ,दृश्य
दर्शक में नहीं !
अक्सर लोग दृश्य दर्शक
बनकर रह जाते हैं
इसीलिए जन्म-मरण ,सुख –
दुःख में फंस जाते हैं !
आचार्य श्री 108 पुष्पदंत सागर जी “शब्दांकन” में
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