जय जिनेन्द्र बंधुओं
! प्रणाम ! नमस्कार ! शुभ मध्यान्ह !
जैसी संगति मिलती है
वैसी ही मति होती है
मति जैसी
अग्रिम गति वैसी
मिलती जाती
मिलती जाती
और यही हुआ है
युगों - युगों से
भवों - भवों से
इसीलिए जीवन की
आस्था से वास्ता होकर
रास्ता स्वयं शास्ता
होकर
सम्बोधित करता साधक
को
साथी बन साथ देता है
आस्था के तारों पर ही
साधना की अंगुलियां
चलती हैं साधक की
सार्थक जीवन में तब
स्वरातीत सरगम झरती
है !
आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महा मुनिराज “मूक माटी” में
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