मेरा अपना इसमें कुछ भी नहीं .........

जो भी कुछ यहाँ लिखा है जिनेन्द्र देव और जैन तीर्थंकरों की वाणी है !

जैन साधुओं व साध्वियों के प्रवचन हैं !!

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Monday, 7 April 2014

अपरिग्रह

जय जिनेन्द्र दोस्तों ! भाइयों और बहनों ! प्रणाम ! नमस्कार ! शुभ  प्रात: !  

महफ़िल तो गैर की हो पर बात हो हमारी,
इंसानियत जहाँ में औकात हो हमारी !
जीवन को देने वाले तु ऐसी जिन्दगी दे,
आँसू तो गैर के हों पर आँख हो हमारी !

राजा श्रेणिक की भव्य नगरी राजगृही में भगवान महावीर का शुभागमन हुआ है ! इसी राजगृही नगरी में अथाह धन ऐश्वर्य का स्वामी महाशतक अपनी रेवती रानी के साथ निवास करता था ! लेकिन राज्य तथा धन विस्तार के साथ इन्द्रिय सुख भोगने में ही लीन था !
सौभाग्य से महाशतक का प्रभु के समवशरण में जाना हुआ ! एक आठ वर्षीया बालिका भगवन की शरण में आती है ! भगवन महावीर से उस नन्ही कुमारिका ने पूछा –प्रभु ,जीवन के आठ ही बरस बीते हैं ! संभवत: आयु का अभी बहुत भाग शेष है ! क्या यह मेरी संचित साँसें परिग्रह नही हैं ? नन्ही बालिका के प्रश्न ने भगवान को चिन्तन की गहराई में उतार दिया ! इतनी नन्ही बालिका और इतना गहन ,गुढ़ ज्ञान देने वाला प्रश्न ? प्रभु ने बालिका की जिज्ञासा को शांत करते हुए कहा –बेटी ,संचित साँसे और यह मानव जीवन तब तक परिग्रह है ,जब तक यह केवल निजी स्वार्थ में उपयोग में आएं ! यदि यह आयु और जीवन का एक-एक पल परोपकार में दान हो जाए तो यह अपरिग्रह का रूप ले लेता है ! स्वार्थी से बड़ा सँसार में परिग्रही कोई नही ! ईश्वर ने जो आँखें दी हैं इससे दीन-हीन का दुःख दर्द देखें ,हाथ और पैरों का उपयोग औरों की सेवा में करें ,यहाँ तक कि सद्विचार भी समाज ,राष्ट्र और विश्व की सेवा में लग जाएँ !
कहते हैं कि महाशतक ने जब इस नन्ही बालिका के विचार और प्रभु महावीर द्वारा दिये गये उत्तर को सुना तो उनकी आत्मा जग गयी ! ह्रदय परिवर्तन हुआ और उसने उसी क्षण प्रभु महावीर के समक्ष  अपनी अथाह धनराशि परोपकार में लगाने का संकल्प किया !
मुनिश्री 108 पुलकसागर जी की पुस्तक “सर्वस्व” भाग-2 से  



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