जय जिनेन्द्र बंधुओं ! प्रणाम ! शुभ
संध्या !
जो छोड़ने को तैयार हो जाता है ,समझ लो वह पाने का अधिकारी हो जाता है ! जो बाहर
से भर जाते हैं ,वे भीतर से रिक्त हो जाते हैं ! जो भीतर से भरने लगता है वह बाहर
से रिक्त होने लगता है ! जिसे अपने अन्दर की रिक्तता का अहसास हो जाता है ,उसे
भीतर में कमी महसूस होने लगती है ! वह बाहर के संबंधों को छोड़ना प्रारम्भ कर देता
है !
आचार्य श्री 108 पुष्पदंत सागर जी
मुनिराज
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