बंधुओं ! आज महावीर
जयंती है। आज से लगभग 2600 वर्ष पूर्व आधुनिक बिहार राज्य के अन्तर्गत तत्कालीन मगध देश में एक ऐसे
महापुरुष का जन्म हुआ था जिसने मानव जीवन के अन्तिम लक्ष्य 'मुक्ति'
को प्राप्त किया था ! उस
श्रद्धेय महापुरुष का नाम वर्द्धमान था किन्तु उनके जीव में अभूतपूर्व साहस
विद्यमान होने के कारण उनको 'महावीर' के
नाम से भी संबोधित किया गया। ऐसे महापुरुषों की कड़ी में वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों
की सूची में सबसे आगे भगवान ऋषभदेव का नाम आता है! उन्होने मानव जाति को सभ्यता का
पाठ पढ़ाया ! यदि हम सभी तीर्थंकरों की शिक्षाओं पर दृष्टिपात करें तो हम इस
परिणाम पर पहुंचते हैं कि उन सभी महापुरुषों की शिक्षाओं का सार 'अहिंसा' था। समस्त महापुरुषों ने अपने उपदेशों में
इस बात पर जोर दिया कि मनुष्य किसी भी प्राणी को मन, वचन या
काया से हानि न पहुंचाये, और न हानि पहुंचाने वाले की
अनुमोदना करे ! भगवान महावीर ने अहिंसा की व्यापक परिभाषा दी थी। उनका मत है- किसी
को मत मारो, सताओ मत, पीड़ा मत दो,
दास-दासी बनाकर हुकूमत मत करो, जबर्दस्ती किसी
को अपने अधीन मत करो। दूसरे के स्वत्व का अपहरण करना परिग्रह है और वह हिंसा है! जिस
तरह परिग्रह और हिंसा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, उसी तरह
अपरिग्रह और अहिंसा में भी समानता है।
भगवान महावीर की जयंती के मौके पर हमें उन सिद्धांतों और शिक्षाओं पर चिंतन और मनन करना चाहिए, जिन्होंने महावीर को भगवान महावीर बनाया। जिन्होंने महावीर को साधारण से असाधारण मानव बनाया! जैसा मैंने जैन दर्शन को जाना और समझा है उस के अनुसार महावीर की शिक्षाओं में मुख्य जोर अपरिग्रह, अनेकांतवाद और अहिंसा पर है ! तीनों शब्द एक दुसरे मे समाहित हैं !
भगवान महावीर की जयंती के मौके पर हमें उन सिद्धांतों और शिक्षाओं पर चिंतन और मनन करना चाहिए, जिन्होंने महावीर को भगवान महावीर बनाया। जिन्होंने महावीर को साधारण से असाधारण मानव बनाया! जैसा मैंने जैन दर्शन को जाना और समझा है उस के अनुसार महावीर की शिक्षाओं में मुख्य जोर अपरिग्रह, अनेकांतवाद और अहिंसा पर है ! तीनों शब्द एक दुसरे मे समाहित हैं !
अनेकांतवाद और
एकान्तवाद के विषय मे सरल शब्दों मे कहा
जाए तो इसे जैन दर्शन दो शब्दों “भी” और “ही” के रूप मे बताता है ! अनेकांतवाद
यानि “भी” मे सारा विश्व समा जाता है , सर्वे भवन्तु सुखिन: की भावना का समावेश है
! एकांत यानि “ही” मे सिर्फ मै ही मै हूँ ...मै ही मै हूँ दूसरा कोई नहीं ! यानि
टकराव की स्थिति ! हिंसा का कारण !
अपरिग्रह यानि जरूरत
से ज्यादा वस्तु ,धन संपत्ति आदि का संग्रह न करना ! अहिंसा यानि मन वचन व काय के
द्वारा किसी प्रकार की हिंसा न करना ! इस
भावना के अनुसार दूसरे व्यक्तियों से ऐसा व्यवहार करें जैसा कि हम उनसे अपने लिए
अपेक्षा करते हैं। इतना ही नहीं सभी जीव-जंतुओं के प्रति अर्थात् पूरे प्राणी
मात्र के प्रति अहिंसा की भावना रखकर किसी प्राणी की अपने स्वार्थ व जीभ के स्वाद
आदि के लिए हत्या न तो करें और न ही करवाएं और हत्या से उत्पन्न वस्तुओं का भी
उपभोग नहीं करें।
महावीर ने कहा कि
अपरिग्रह के बिना अहिंसा असंभव है। अहिंसा के बिना अपरिग्रह असंभव है। चूंकि
अहिंसा 'न मारने के
सिद्धांत' में सिमट गई और 'अपरिग्रह अहिंसा
की आत्मा' है- इस सिद्धांत को भुला दिया गया, इसलिए अहिंसा और अपरिग्रह दो अलग-अलग मत हो गए। दोनों अलग-अलग पड़ गए।
महावीर की क्रांति का मुख्य सूत्र है- अपरिग्रह और अहिंसा की एक आसन पर एक साथ
उपस्थिति। विडंबना है कि हम महावीर के नाम पर अहिंसा की रट तो लगा रहे हैं,
पर अपरिग्रह को पर्दे के पीछे ढकेल रहे हैं। नतीजा- लाख कोशिश करने
पर भी, उपदेश देने पर भी, तमाम व्यवस्थाएं
करने पर भी अहिंसा का विकास नहीं हो रहा है, जबकि समाज में
हिंसा बढ़ती जा रही है !
जरा विचार करूं तो
पाता हूँ की हिंसा के ज्यादातर कारणों मे , मानव समाज मे अपरिग्रह की भावना को
भूला दिया जाना ही है ! पदार्थ के अभाव से उत्पन्न दुख को सद्भाव से मिटाया जा सकता
है, श्रम से मिटाया
जा सकता है किंतु पदार्थ की आसक्ति से उत्पन्न दुख को कैसे मिटाया जाए? इसके लिए महावीर के दर्शन की अत्यंत उपादेयता है। भगवान महावीर ने व्रत,
संयम और चरित्र पर सर्वाधिक बल दिया था !
भगवान महावीर के
दिखाए पथ पर चल कर हम सब आत्म कल्याण करें ! इसी पुनीत पावन भावना के साथ सभी को महावीर
प्रभु के जन्म कल्याणक की हार्दिक शुभ कामनाएं
! जय जिनेन्द्र !
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