जय जिनेन्द्र बंधुओं ! प्रणाम ! नमस्कार
ध्यान के द्वारा
भौतिक व आध्यात्मिक दोनों प्रकार की अग्नि प्रज्वलित होती है ! सभी चीजें अग्नि मे
तपकर ही शुद्ध होती हैं ! स्वर्ण पाषाण से स्वर्ण को प्रथक करना हो तो उसे तपाना
पड़ता है ,तपाये बिना कालिमा से स्वर्ण को पृथक नहीं किया जा सकता ! आत्मा और कर्म
व शरीर को पृथक करना है तो शरीर व आत्मा दोनों को ही तपाना पड़ता है ! आत्मा भौतिक
अग्नि मे नहीं बल्कि ध्यान की अग्नि मे तप कर शुद्ध होती है ! ध्यान मे एकाग्रता
,सजगता व निर्मलता के साथ धैर्य व सतत प्रयास भी आवश्यक है ! तप का अर्थ दुखों को
सहना नहीं बल्कि इतनी शक्ति जागृत कर लेना है जिससे दुःख आत्मा व शरीर को प्रभावित
न कर सकें !
No comments:
Post a Comment