अहंकार और समर्पण
दुर्योधन अहंकार से भरा हुआ
श्रीकृष्ण के सिर पर खड़ा रहा और अठरह हजार अक्षोहिणी सेना को प्राप्त कर लिया फिर
भी उस के हाथ में हार व मौत आई ! परन्तु अर्जुन समर्पण की भावना से श्रीकृष्ण के
चरणों में खड़ा रहा और श्रीकृष्ण को अपना सारथी
बनाया तो वह अजेय हुआ !श्रीकृष्ण के विराट रूप का दर्शन भी किया ,यह गहरे समर्पण
का ही फल है ! इसी प्रकार जो मनुष्य अपने जीवन रथ का सारथी परमात्मा को ,सन्त को
बना लेता है तो वह सँसार की समर भूमि में जय को प्राप्त कर लेता है ,परमात्मा के
दिव्य दर्शन करता है ! शर्त मात्र इतनी सी है कि वह समर्पण श्रद्धा भक्ति से भरा
हो ,कुछ पाना चाहता हो ! जो मनुष्य जीवन रथ का सारथी संतों को बना लेता है वह तर जाता है अन्यथा
मनुष्य भौतिकता की सडांध से मर जाता है ! जीवन खाली का खाली ही रह जाता है !
अक्षौहिणी प्राचीन भारत में
सेना का माप हुआ करता था। ये संस्कृत का शब्द है। विभिन्न स्रोतों से इसकी संख्या
में कुछ कुछ अंतर मिलते हैं। महाभारत के अनुसार इसमें 21,870
रथ, 21,870 हाथी, 65, 610 घुड़सवार एवं
1,09,350 पैदल सैनिक होते थे।[1][2][3] इसके अनुसार इनका अनुपात 1 रथ:1 गज:3 घुड़सवार:5 पैदल सनिक होता था। इसके प्रत्येक भाग की संख्या के अंकों का कुल जमा 18 आता है। एक घोडे पर एक सवार बैठा होगा, हाथी पर कम
से कम दो व्यक्तियों का होना आवश्यक है, एक पीलवान और दूसरा
लडने वाला योद्धा, इसी प्रकार एक रथ में दो मनुष्य और चार
घोडे रहे होंगें, इस प्रकार महाभारत की सेना के मनुष्यों की
संख्या कम से कम 46,81,920 और घोडों की संख्या, रथ में जुते हुओं को लगा कर 27,15,620 हुई इस संख्या
में दोनों ओर के मुख्य योद्धा कुरूक्षेत्र के मैदान में एकत्र ही नहीं हुई वहीं
मारी भी गई। [4] अक्षौहिणी हि सेना सा तदा यौधिष्ठिरं बलम् ।
पोस्ट का कुछ भाग प्रवचन से व कुछInternet पर उपलब्ध सुचना से लिया गया है ! कोई भूल हो तो उसे सुधार करें !
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