राजा और मंत्री में
परस्पर गहरी मित्रता थी ! एक दिन राजा ने देखा कि आजकल मंत्री बहुत उदास रहता है !
इसका कारण क्या है ? खोजबीन करने पर भी जब कारण पता नहीं चला तो आखिर मंत्री से ही
पूछा –मन्त्रिवर ! चेहरा इतना उदास क्यों ? तुम तो सदा खिलखिलाते खुश मिजाज थे फिर
अब अचानक खिन्नमना कैसे बन गये हो ?
मंत्री में बात बताने
में संकोच किया ,किन्तु राजा के दबाब देने पर कहा –महाराज ! हम दोनों युवा अवस्था
में हैं ! अभी कुछ दिन पहले ही आपने एक कन्या से विवाह किया ,उस कन्या के प्रति
मेरे मन में आकर्षण था ! मै उसके साथ शादी करना चाहता था किन्तु वह मुझे न मिली !
इसीलिए वह शल्य मेरे भीतर चुभता रहता है ! वह मुझे बार बार याद आती है ,किन्तु अब
मेरे लिए अप्राप्य है ,इसीलिए आजकल मेरा मन दुखी रहता है !
राजा ने सुना तो एक पल
को वह सुन्न रह गया -फिर कुछ सोच कर कहा –बस इतनी सी बात है ? तुम चिन्ता न करो !
इसकी व्यवस्था हो जायेगी !
राजा तत्काल ही अपने
महल में पहुंचा –अपनी नव विवाहिता पत्नी से बोला –क्या तुम्हे मेरा हर आदेश
स्वीकार्य है ?
रानी ने कहा –प्राणनाथ
! आप तो मेरे प्राणाधार हैं ! आप जैसा कहेंगें मै वैसा ही करुँगी ! कहिये क्या
आदेश है ?
राजा ने कहा –आज
सायंकाल में तुम मेरे मंत्री के घर चली जाना ! आज की रात्रि तुम्हे वहीँ निवास
करना है ! यह सुनते ही रानी अवाक रह गयी ! यह कैसा आदेश ? परन्तु आदेश तो आदेश ही
था !
रानी सायंकाल अपने महल
से रवाना हुई ! मंत्री के निवास स्थान के निकट पहुँच गयी ! मंत्री ने रानी को अपने
आवास की ओर आते हुए देखा ,मन एकदम से बदल गया ! हा ! हा ! राजा की पत्नी तो माता
के समान होती है ,उसके प्रति मेरे मन में ऐसी दुर्भावना कैसे आ गयी ? मंत्री रानी
के सामने गया ! झुककर रानी को प्रणाम किया और कहा –पधारो ! राजमाता ! आपने बड़ी
कृपा की ! रानी को यथोचित आदर सत्कार के साथ भोजन करवाया और वापिस महल की ओर रवाना
कर दिया
मंत्री ने मन में सोचा –मेरे
मन में एक माता तुल्य महारानी के प्रति दुर्भावना आई ,विकार भाव आ गया ! अब मुझे
जीने का कोई अधिकार नहीं है ! यह सोचते हुए तुरंत म्यान से अपनी तलवार निकाल ली और
अपनी गर्दन पर चलाने ही वाला था कि राजा ने तुरंत उसका हाथ पकड़ लिया ! राजा भी साथ
साथ ही गुप्त रूप से वहाँ पहुचं गया था ! मंत्री ने कहा –राजन ! मुझे मर जाने
दीजिए ! मै आपको मुहँ भी दिखाने के काबिल नहीं हूँ !
राजा ने कहा –मन्त्रिवर
! मुझे भरोसा था कि तुम्हारे द्वारा कोई गलत व्यवहार हो ही नहीं सकता ! तभी तो मैंने अपनी प्रिया को तुम्हारे पास
भेजा था ! मंत्री के मन का काँटा निकल गया ! दुखी मन प्रसन्न हो गया !
आदमी को कोई ऐसा
महावैद्य मिल जाए ,मन की बीमारी को दूर कर सके ,मन की समस्या का समाधान कर सके !
ऐसे महावैद्य के योग से मन की व्यथा दूर हो सकती है ! मन का काँटा निकल सकता है और
आदमी का मन सुखी बन सकता है ! आदमी अपने जीवन में सद्गुणों का विकास करते करते एक
समय ऐसा आता है ,जब सर्वगुण सम्पन्नता की स्थिति प्राप्त कर लेता है !
आचार्य श्री महाश्रमण
जी की पुस्तक “संवाद भगवान से-भाग-2” से
भूल की पुनरावृति न
होने देना ही भूल का सबसे बड़ा प्रायश्चित है ,अत: भूत की भूलों को भूल जाओ ,तत्व
ज्ञान के बल से वर्तमान में हो रहे भावों को संभालो ,भविष्य स्वयं संभल जाएगा !
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