जय जिनेन्द्र बंधुओं .......प्रणाम ! शुभ प्रात:
मनुष्य और बुद्धत्व
के मध्य वासनाओं की मजबूत दीवार बन चुकी है ! उस दीवार को गिराये बिना मनुष्य
परमात्मा नहीं हो सकता! मनुष्य अज्ञानता के कारण बाह्य जगत् को संवारना चाहता है !
उसी में वह सुन्दरता और सौख्य की कल्पना कर रहा है ! उसे यह विवेक होना चाहिये कि
संसार तभी सुन्दर प्रतीत होता है,
जब अन्तःकरण शुचिर्भूत होता है! प्राप्त होने वाली भोग - विलास की
सामग्रियों के द्वारा भी मनुष्य तब तक सुखी नहीं हो सकता, जब
तक कि मन प्रसन्न नहीं होता ! सुख बाहरी जगत की देन नहीं है, वह तो अन्तस्
का पावन संगीत है ! मन प्रसन्न है तो सारी वस्तुयें सुखदायक और मन अप्रसन्न हो तो
सारी वस्तुयें दुःखदायक होती हैं ! बाहर जो कुछ परिलक्षित हो रहा है, वह सब अन्तस् का प्रक्षेपण है ! अतः सुखेच्छ भव्य को वासनाओं का विलय करने
विषयक प्रयत्न करना चाहिये
आचार्य श्री सुविधि
सागर जी के प्रवचनों से
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