आदमी जब बाहर की ओर
दृष्टिपात करता है तो उसकी आत्मा का पतन
होता है और जब आत्म स्वरुप मे लीन होता है ,अपनी ओर देखता है तो स्वयं की रक्षा कर लेता है !
‘मर हम मरहम बनें’
अभिप्राय यह है कि कठोर
पाषाण की तरह हमारा जीवन बन गया है, इस कठोर जीवन से अनेकों जीवन ठोकर खाकर गिर गये
! अपना विकास करने से रुक गये ! सदमार्ग को छोड़ कर दुमार्गगामी बन गये ! अनेक
ह्रदय घावों से भर गये ,लेकिन अभी उनका सही उपचार करने का मन मे विकल्प नहीं आया !
आएगा भी कैसे ? क्योंकि जब मन पाप युक्त होता है तो आदमी इन पंक्तियों को दोहराता
हुआ रह जाता है ,अमल नहीं कर पाता है ,तब मन पश्चाताप से भर जाता है ! जब तक कुछ
समझ मे आये ,तब तक जीवन की श्वासें समाप्ति की ओर पहुँच जाती हैं ! फिर कुछ कर
पाना संभव नहीं रह जाता ! प्रभु से प्रार्थना है कि इस पर्याय मे कुछ नहीं कर पाया
,मुझसे कुछ भला नहीं हो पाया ! अगली पर्याय मे हम मरकर मरहम की तरह मृदु कोमल बने!
आर्यिका माँ
प्रशान्तमति माताजी “माटी की मुस्कान” मे गुरुदेव आचार्य विद्यासागर जी की पुस्तक
“मूक माटी”पर आधारित
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