मित्रों जय जिनेन्द्र
......शुभ प्रात: प्रणाम
कान का आभूषण है ज्ञान
सुनना ,कुंडल नहीं !हाथ का आभूषण है दान देना ,कंगन नहीं ! शरीर का आभूषण है –परोपकार
करना ,दूसरों की सेवा करना ! चन्दन का लेप लगाना नहीं !
चीन के महान दार्शनिक
सन्त कनफुसियस जंगल मे बेठे थे ,चिन्तन मे लीन थे ! चीन का सम्राट उधर से गुजरा और
वहाँ रुक गया ! सम्राट ने कन्फुशियस से पूछा –तुम कौन हो ?
मै सम्राट हूँ –कन्फुशियस
ने कहा !
सम्राट ने कहा –तुम
सम्राट कैसे हो सकते हो ? सम्राट तो मै हूँ !
कन्फुशियस ने कहा –सम्राट
होने का प्रमाण क्या है ?
सम्राट ने कहा –मेरे
पास सैनिक हैं ,सेवक हैं ,धन वैभव है ! कन्फुशियस ने कहा – सेना की जरूरत तो उसे
होती है ,जिसका कोई शत्रु होता है ,मेरा कोई शत्रु नहीं है इसीलिए मुझे सेना की
जरूरत नहीं है ! सेवक भी उसे चाहियें ,जो स्वयं आलसी हो या असमर्थ हो किन्तु मै तो
सक्षम हूँ .स्वावलंबी हूँ ,परिश्रमी हूँ इसीलिए मुझे सेवक की जरूरत नहीं है !धन
वैभव उसको चाहिए जो दरिद्र हो !मेरे पास तो संतोष रुपी महान धन है ! मुझे ठाट बाट
की जरूरत नहीं है ! यह सुनकर सम्राट का सिर झुक गया !
आचार्य श्री महाप्रज्ञ
जी “संवाद भगवान से” मे
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