मित्रों जय जिनेन्द्र
......शुभ प्रात: प्रणाम
वर्तमान काल के युग दृष्टा थे प्रभु ऋषभदेव ! अयोध्या के राजा नाभिराज के पुत्र ऋषभ अपने पिता की मृत्यु के बाद
राज सिंहासन पर बैठे जैन पुराणों के अनुसार अन्तिम कुलकर राजा नाभिराय के पुत्र
ऋषभदेव हुये जो कि महान प्रतापी सम्राट और जैन धर्म के प्रथम तीथर्कंर हुए। ऋषभदेव
के अन्य नाम ऋषभनाथ, आदिनाथ, वृषभनाथ भी है।
भगवान ऋषभदेव का विवाह यशस्वती (नन्दा) और सुनन्दा से हुआ। उनके
पुत्रों मे भरत सबसे बड़े एवं प्रथम चक्रवर्ती
सम्राट हुए जिनके नाम पर इस देश का नाम भारत पडा। दुसरे पुत्र बाहुबली भी एक महान राजा एवं
कामदेव पद से बिभूषित थे। इनके आलावा ऋषभदेव के वृषभसेन, अनन्तविजय,
अनन्तवीर्य, अच्युत, वीर,
वरवीर आदि ९९ पुत्र तथा ब्राम्ही और सुन्दरी नामक दो पुत्रियां भी
हुई, जिनको ऋषभदेव ने सर्वप्रथम युग के आरम्भ में क्रमश:
लिपिविद्या [अक्षरविद्या]और अंकविद्या का ज्ञान दिया।
उस समय का मानव कुछ
नहीं जानता था ! प्रकृति पर निर्भर था ! मिल गये कंद - मूल तो खा लिए ,नहीं मिले
तो पड़ा है निष्क्रिय !इतिहास कहता है ऋषभ देव के समय भोग भूमि की परम्परा थी ! सब
प्रकृति पर निर्भर थे !न नव निर्माण की दृष्टि थी न जीवन के विकास की ! निष्क्रिय
मानव को सक्रिय बनाकर जीवन जीने की कला सिखाई ऋषभदेव ने !
धर्म तीर्थंकर बनने से
पूर्व वह बने कर्म तीर्थंकर ! और उन्होंने कृषि, शिल्प, असि (सैन्य शक्ति ), मसि
(परिश्रम), वाणिज्य और विद्या इन छह आजीविका के साधनों की
विशेष रूप से व्यवस्था की तथा देश व नगरों एवं वर्ण व जातियों आदि का सुविभाजन
किया।
ऐसे आदि प्रभु के मोक्ष
कल्याणक दिवस पर शत –शत नमन !
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