यौवन
महकती जवानी पाकर, क्यों इतना इतराते हो ,
अपने वरदानों को तुम क्यों अभिशाप बनाते हो !
धन और रूप की मदिरा हमें झुमाती है ,
अज्ञानी तु क्यों भूला,जवानी मोम सम उड़ जाती है !!
जरा ध्यान से देखो, उड़ते हुए धुंए को ,
तुम भी ऐसे ही हो, फिर क्यों खोदते कुँए को !
देखा होगा प्रात: मुस्काती ,फुल की कली को ,
साँझ वही धुल में मिली ,देखी होगी कली को !!
मृत्यु देखती नहीं कि छोटा कौन और बड़ा कौन ,
उठा ले जाती है पल भर में ,वह ज्योति को मौन !
फिर क्यों अभिमान कर,भोगों में गंवाते हो जवानी ,
अरे मौत ने अच्छे अच्छों को पिला दिया है पानी !!
यौवन की बगिया में,भक्ति के पुष्प खिलाओ ,
विगत कृत्यों को शीघ्र ,यहाँ आके भूल जाओ !
जोड़ो प्रभु से नाता भक्ति में ,करो तांडव नृत्य ,
तत्क्षण ही देखोगे, आत्मा में आत्मा का दृश्य !!
मुनिश्री 108 सौरभ सागर जी महाराज “सृजन के द्वार पर” में
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