निज में निज को
नजर रखो तुम उस
तरफ भी ,
जो दुःख को हमें
दिलाती है ,
शंका न करो हे मन मेरे ,
यह मोह हमें भटकाती है !!
तेरे नयनों के सामने में तो ,
छाया है अज्ञान अंधियारा ,
जिसके कारण हे मन
तुमको ,
दीखता न है भव का
किनारा !!
कर्ज चुकाओ तप
करके तुम ,
जो अनादि से लिया
हुआ
दीप जलाओ अन्तस्
में तुम,
जो अनादि से बुझा
हुआ !!
एक दिवस को आया
यहाँ पर ,
एक दिवस में
जाएगा
धन वैभव को छोड़
अरे नर ,
क्या इसको लेकर
जाएगा !!
फूलों को तुम दूर फैंककर
,
शूलों से क्यों
नाता जोड़े
दुविधा भ्रम संशय
में फंसकर,
संयम से क्यों नाता तोड़े !!
मुख मोडो सब जग
झंझट से ,
आलोकित कर लो निज
को
शान्ति सुधा तुम
पाओगे फिर,
जब पालोगे निज में
निज को!!
हे मन निज में निज
को ढूँढो ,
निज सत्ता को
जल्दी पाओ
मोह शत्रु को जीत
के हे मन,
मुक्ति रमा में रम
जाओ !!
मुनिश्री 108
सौरभ सागर जी महाराज “सृजन के द्वार पर” में
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