सँसार की उलटी रीत
तिमिर छाया हुआ
है घोर इस सँसार में
विष का प्याला पी के मानव कह रहा ये प्यार है
उलटी होती जा रही जग की सारी रीत है
घृणा में बदलती जाती जग की सारी प्रीत है
नंगी धार गंगा की बंधी हुई बह रही
भास्कर की किरण भी रो रो के
कह रही
पूर्ण चन्द्र होते हुए भी घोर
अन्धकार है
विष का प्याला पी के मानव कह रहा यह प्यार है !!
वैश्या को मिल रहे वस्त्र के उपहार है
सती सावित्री का होता तिरस्कार है
चोर लुटेरे को फूल माला सब पहना रहे
साधुओं को देखो आज सब दफना रहे
बर्फ के नीचे छुपा रहे अन्धकार है
विष का प्याला पी के मानव कह रहा यह
प्यार है !!
घृणा की छैनी ले
प्रेम प्रस्तर तोड़ रहे
वासना को प्रेम समझ उसके पीछे दौड रहे
सत्य को सूल
बता ढूंढ ढूंढ तोड़ रहे
पाप अत्याचार को फूल समझ जोड़ रहे
अग्नि को बुझाने डाल रहे तेल धार है
विष का प्याला पी के मानव कह रहा ये प्यार है !!
कमल पत्र पे जमी जो ओस की बूँद है
प्रभात होते ही देखो मिटती ओस बूंद है
मानव के जीवन की ऐसी ही कहानी
पल पल आयु बह रही ज्यों दरिया का पानी
आत्म तन तरु से पक्षी उड़ने को तैयार है
विष का प्याला पी के मानव कह रहा यह प्यार है !!
मुनिश्री 108 सौरभ सागर जी “सृजन के द्वार पर” में
No comments:
Post a Comment