स्वयं शुद्ध निर्दोष सन्मार्ग को बाल (अज्ञानी) और अशक्त जनों के आश्रय से होने वाली निंदा को जो दूर करते हैं उसे ज्ञानी जन उपगूहन अंग कहते हैं !
बुरे काम की ओर मनुष्य की सहज भाव से प्रवृत्ति होती है ! समझाने पर भी भली बात की ओर झुकना इसके लिए कठिन होता है प्रथम तो बहली बात को सुनना भी कोई नही पसन्द करता ,अगर किसी ने सुन भी लियातो फिर उस पर चलना वह अपने लिए उतना ही कठिन समझता है जितना सांप के लिए सीधा चलना ! अगर कहीं किसी ने स्वीकार कर भी लिया तो उसे अन्त तक उस रूप मे निभाना बहुत ही कठिन होता है ! अगर कोई अपने किये हुए संकल्प को निभाना भी चाहता है ,तो दुनियादारी के लोग उसे स्पर्धा करके अपने संकल्प पर डटे रहने से लाचार बनाने की चेष्टा करते हैं ,उसे हर तरफ से बाध्य किया करते हैं ताकि वह अपने कर्तव्य से हट जाए ! समझदार आदमी किसी की बुराई करना जानता ही नही ,वह अपने आपकी अपेक्षा सभी को बहुत अच्छा मानता है ! वह हर समय अपने अवगुणों को देखा करता है ,दूसरे के अवगुणों की तरफ उसकी निगाह जाती ही नही ! दूसरे मे कोई गुण हों तो वह ग्रहण करने को लालायित रहता है ! दूसरे की बुराई को सुनना भी नही चाहता ,वह मानता है कि दूसरे की बुराई सुनने वाला ही बुरा होता है !अगर किसी के सामने किसी की बुराई का प्रसंग आता भी है तो वह बड़ी चतुराई से ताल जाता है ! इसी प्रकार सज्जन को चाहिए कि दूसरे के अवगुणों मे से भी गुण ढूंढ ले ! समालोचकों की दृष्टि मे बिलकुल न खटके ताकि हर व्यक्ति सहज सन्मार्ग पर चलने लगे !
मूल रचना : "रत्न करंड श्रावकाचार "मानव धर्म आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी
हिन्दी व पद अनुवाद : आचार्य श्री ज्ञान सागर जी व आचार्य श्री विद्या सागर जी
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