विनोबा भावे ने लिखा है कि शरीर तो एक ही मिला है ,उस पर एक जोड़ी कपडे
पहने जा सकते है ,आप भले ही संदूक में पचास जोड़ी रख लो ,पहनोगे तो एक ही जोड़ी !
क्या पचास जोड़ी एक बारी में पहन पाओगे ,नहीं एक ही पहन पाओगे ! लेकिन उस एक के पहनने के लिए उनचास ! सुख तो
दे रहा है एक जोड़ी कपडा लेकिन उसमे सुख नहीं है ,वो जो उनचास पेटी में रखे हैं वो
भीतर ही भीतर गुदगुदी पैदा करते हैं ! जिस दिन उनमे से एक कम हो जाएगा सो उसका
दुःख भी मिलेगा जबकि कपडे जो शरीर पर पहन रखे हैं वो कौन सा दुःख दे रहे हैं ,आपके
शरीर की सुरक्षा के लिए हैं ,सो सुरक्षा कर रहे हैं ! वो जो संदूक में रखे हैं ,सो
थोड़े सा होने का सुख ओर जब नहीं हैं सो ओर दुःख ! जबकि शरीर के वस्त्र में कोई
फर्क नहीं आया !
संख्या की अपेक्षा भी ओर परिमाण की अपेक्षा भी ,दोनों ही हम बहुत
संग्रहीत करके अपने पास रखते हैं ! अनावश्यक ,उसके लिए हमें कितना भी शोषण करना
पड़ता है ,कितना दुसरे को तकलीफ पहुंचानी पड़ती है ओर स्वयं हमारे जीवन को उससे कोई
सुख पहुँचता हो ऐसा भी नही है !
कितना जोड़ जोड़ के रख लिया ओर अगर सदुपयोग नहीं कर रहे हैं तो मानिए
बहुपरिग्रही हैं ,बहुत आसक्ति है तब तो सदुपयोग नहीं कर रहे हैं !
मुनिश्री 108 क्षमा सागर जी की पुस्तक “कर्म कैसे करें” से सम्पादित अंश
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