हरी भरी कोमल कलियों और सुन्दर सुमनों से लदी टहनियों ने तने से कहा –
“हम कितने सुन्दर हैं ?” प्रश्न की प्रतिक्रिया को भीतर ही पचाकर ,संयत स्वर में
तने ने कहा –“हाँ ,बेटी तुम बहुत सुन्दर हो !
सौन्दर्य का दर्प इससे तृप्त न हो पाया ! वह अपनी महत्ता का स्वीकार
तो चाहता ही है ,दुसरे की हीनता स्वीकृति भी आवश्यक मानता है !
“और तुम कितने कुरूप हो जी ! काला भूत सा रंग और खुरदरी खाल ! छि:!”
प्रतिक्रिया कंठ तक भर आई !
फिर भी अपने आप को यथा सम्भव मसोसकर तने ने कहा –“हाँ ,बेटी ! मुझमे सौन्दर्य नहीं
है ,पर जिस सौन्दर्य पर तुम इतना इतरा रही
हो उसके आधार रस का भण्डार प्रकृति ने मुझे ही दिया है ! मै उसका झूठन तुम्हे न
दूँ ,तो तुम्हारा सौन्दर्य कुछ ही पलों में बिखर जाएगा !”
सन्त कहते है रूप का नहीं, स्वरुप का सत्कार करो ! किस रूप पर मुग्ध
होते हो ? मक्खी के पंख से भी पतली शरीर की एक परत को उतारते ही सुन्दर सलोना
दिखाई पड़ने वाला यह शरीर घृणा की चीज बन जाएगा !
दीप का नहीं ,ज्योति का, सीप का नही ,मोती का सत्कार करना चाहिये !
मत रूप निहारो दर्पण में ,दर्पण गंदला हो जाएगा
निजरूप निहारो अन्तर में, अन्तर उजला हो जाएगा
मुनिश्री 108 प्रमाण
सागर जी “धर्म जीवन का आधार” से संपादित अंश
No comments:
Post a Comment