जय जिनेन्द्र बंधुओं
! प्रणाम ! नमस्कार !शुभ मध्यान्ह !
बाहर यह
जो कुछ भी दिख रहा है
सो... मै....
नही..... हूँ
और वह
मेरा भी नही है
ये आंखें
मुझे देख नही सकती
मुझ में
देखने की शक्ति है !
उसी का स्रष्टा
था ...हूँ ...रहूँगा
सभी का दृष्टा
था ....हूँ
....रहूँगा
बाहर यह
जो कुछ भी दिख रहा है
सो... मै....
नही..... हूँ
आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महा मुनिराज “मूक माटी” में
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