सँसार का सुख कर्मों के अधीन है ,अन्त सहित है ! जिसका उदय दुखों से अन्तरित है अर्थात ,सुख काल के मध्य मे भी दुखों का उदय आता रहता है और पाप का बीज है ,ऐसे इन्द्रिय जन्य सुख मे आस्था और श्रद्धा नही रखता ,अर्थात सँसार के सुखों की आकांक्षा नही करना ,यह निकांक्षित अंग माना गया है !
विषयों का सुख पराधीन हैं ,वह भी दुःख से मिला हुआ होता है ! जितना भी सांसारिक सुख है वह सब शहद लपेटी हुई तलवार की धार को चाटने के समान है ! इस विषय भोग को भोगते समय मनुष्य खुदगर्ज होता है ! आगे के लिए पाप का उपार्जन करता है ! इन सब बातों को लेकर एक सत्य पथ का पथिक विषय सुख के भोगने से उदासीन रहता है ! उसे वह निस्सार समझता है और यह बात सही भी है ! जिसने त्याग मार्ग के आनन्द को अपने जीवन मे,ह्रदय मे स्थान दे दिया ,उसे वह विषय सुख अच्छा भी कैसे लग सकता है ! वह जल मे कमल की भान्ति अलिप्त रहता है अर्थात अपने जीवन मे गृहस्थ के कार्य को करते हुए भी उनसे अपने आप को भिन्न समझता है ! राजा के धोए ,पोंछे शरीर को अलंकारों से लदा देखकर उसे प्रेम नही करता और रंक के धुल धूसरित शरीर को देखकर उसे बुरा नही मानता ! यह सब कर्मों का खेल है ,यही सोचता है !
मूल रचना : "रत्न करंड श्रावकाचार "मानव धर्म आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी
हिन्दी व पद अनुवाद : आचार्य श्री ज्ञान सागर जी व आचार्य श्री विद्या सागर जी
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