कुलभूषणमुनिराज को जंगल मे आहार दिया था ,जो कि बाद मे
केवल ज्ञान को प्राप्त कर मोक्ष गामी हुए और भगवान बने
मोह का अर्थ है संसार ! एक मोह भोगों से होता है ! वह संसार का कारण है ! एक मोह धर्म से होता है ,वह परम्परा से मुक्ति का कारण है ! जैसे सुबह की लालिमा और सांझ की लालिमा ,लालिमा तो दोनों हैं परन्तु दोनों मे जमीन आसमान का अंतर है ! सांझ की लालिमा मनो इस बात की ओर इंगित करती हुई प्रतीत होती है कि अन्धकार की ओर चलो और भोगों मे मग्न हो जाओ ,अत: सांझ की लालिमा अन्धकार और भोग का प्रतीक है ,इसके विपरीत सुबह की लालिमा प्रकाश की ओर ले जाती है ,इस बात की ओर इशारा करती है कि समस्त भोगों को लात मार कर प्रकाश की ओर आ जाओ ! आइये अब आपको मै राम के पास ले चलता हूँ ! उनके इस जीवन के पास जिससे उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम राम की उपाधि मिली ! किस प्रकार राम ने मोह को तोडा !
सारे नगर मे यह बात फ़ैल चुकी थी कि राजगद्दी का सम्पूर्ण कार्यक्रम कैसे रात रात मे बदल गया ओर राम को राजगद्दी कि जगह चोदह वर्षों का बनवास मिला !
हुआ क्या ? इस खबर को सुनते ही समस्त नगर वासियों को जैसे लकवा ही मार गया ! परन्तु इस पर राम की क्या प्रतिक्रिया हुई ? उनका चेहरा तो ये सुनते ही खिल गया जैसे मयूर का मन कजरारे मेघों को देखकर खिलता है ,जैसे चकोर चन्द्रमा को देखकर ,माली अपने उद्यान मे खिले रंग विरंगे पुष्पों को देखकर ,विद्यार्थी अपना उत्तम परीक्षा फल देखकर ,माँ अपने लाल को देखकर ,प्रेमी अपनी प्रेयसी को देखकर व उषा अपने भास्कर को देखकर प्रसन्न होती है ! उन्हें लगा जैसे आज अन्धे को आँखें मिल गयी !
इधर समस्त नगर वासी ये कह रहे थे कि राम के पापों का उदय हो गया है ,अब राम हमारे बीच मे नही रहेंगें !और राम चिंतन कर रहे थे कि वान मे रहकर साधना का दुर्लभ अवसर मिला ! धन्य भाग हैं मेरे !
देखो भक्त कितना चालाक होता है ,इधर स्वयं भोगों को छोडना नही चाहता और राम को,भगवान को प्राप्त करना चाहता है ,अरे जब तुम्हे राम इतने ही प्रिय हैं तो भगवान के साथ वन मे क्यों नही चले जाते ? वे वहाँ हर क्षण तुम्हारे साथ ही रहेंगे ! लेकिन नही हम वन मे नही जाना चाह्ते !
यह सब दृश्य राम अपनी खुली आँखों से देख रहे थे ,अनुभव कर रहे थे ,साथ ही वन को जाने कि तैय्यारी कर रहे थे ! अक्समात लक्ष्मण उनके सामने आ गए और कहने लगे क्या यह सब सच है जो मैं सुन रहा हूँ ? तब राम ने कहा -लक्ष्मण आज मेरा पुण्य का उदय आ गया है ! आज मुझे इस बात का पता चल गया है कि अवश्य ही मैंने पिछले जन्म मे कुछ पुण्य किया होगा जिससे मुझे साधु के सामान जीवन बिताने का सौभाग्य मिला है ! यहाँ इस भोगमय जीवन मे तो सिर्फ पाप ही होता है ,लोगों कि दृष्टि मे तो भोग भोगना ही पुण्य है और मेरी दृष्टि मे तो चेतन आत्मा को भोगना ,अर्थात साधु के समान जीवन यापन करना ही पुण्य है ! भोग सामग्री तो अल्प प्रयत्न से ही सबको सुलभ हो सकती है ,परन्तु साधु का जीवन ,साधु के समान जीवन सबके लिए इतना सरल नही है !
शिक्षा ये है कि सुख मे भोगों मे मग्न न हों और दुःख की स्तिथि आने पर अपने कर्मों की निर्जरा का कारण मान कर जीवन यापन करें !
आचार्य श्री 108 पुष्पदंत सागर जी
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