ऐसे ही आप्त को परमेष्ठी ,परमज्योति ,वीतराग ,विमल ,सर्वज्ञ ,कृति ,आदि मध्य अन्त से रहित ,अनादि अनन्त और सार्व (सबका हितैषी ) शास्ता या मोक्ष मार्ग प्रणेता कहा जाता है !
हे भगवन ! आप परमेष्ठी परा संसारातीता मतलब --यह सँसार दुनियादारी की आत्मा ,बाहिय के पदार्थ को बटोरकर अपने को भाग्यशाली समझता है ! परन्तु आप तो दुनिया की चीजों को लात मारकर ऐसे संपत्ति शाली ,महिमाशाली बने हैं कि सँसार के इन्द्र ,चक्रवर्ती सहित सभी महापुरुष आपको सिर झुकाते हैं ! आप परम ज्योति हैं सदा प्रकाशित रहने वाले हैं अर्थात सँसार के सूर्य चन्द्रमा भी किसी न किसी पदार्थ से कभी प्रतिहत हो जाते हैं ! वीतरागी हो -आपकी दृष्टि मे न कोई बुरा है न भला ,सभी अपने कर्मों के अधीन होकर परिणमन करते हैं ! आप विमल हैं -आप मे किसी और दूसरी छेज का सम्मिश्रण नही है ! कृति हैं अर्थात आपको कुछ कार्य करने को शेष कुछ रहा नही जो करना था कर चुके ! सर्वज्ञ हो -भुत ,भविष्यत ,वर्तमान को सम्पूर्ण रूप से जानने वाले हो आपने बताया कैसे मैंने मेरी इस आत्मा को रागादि दोषों को हटाकर साधना से परमात्मा बना लिया है ! उसी प्रकार प्रत्येक जीवात्मा भी अपने को परमात्मा बना सकता है ,इसीलिए आप सार्व हो और आपका शासन सर्व हितकर है ! सभी उसका ह्रदय से स्वागत करते हैं ,अत: आप ही वास्तव मे शास्ता हो ,इत्यादि सुन्दर शब्दों से सभ्य व्यक्ति आप कि स्तुति करते हैं !
मूल रचना : मानव धर्म आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी
हिन्दी व पद अनुवाद : आचार्य श्री ज्ञान सागर जी व आचार्य श्री विद्या सागर जी
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