जिस प्रकार नौशाद्दर और सुहागा डालकर सुवर्ण को अग्नि मे अच्छी
तरह तपाने से वह बिलकुल खोट रहित शुद्ध हो जाता है ! उसी प्रकार
सत्पुरुषों की संगति को प्राप्त होकर अपने मन को पुनीत बनाने और
बाहरी आवश्यकता को रूप तपस्या के द्वारा हम अपनी
आत्मा को भी शुद्ध निर्दोष बना सकते हैं ! ऐसा करने से हमारे साथ लगे
हुए रागादि दोष मिट सकते हैं ! ऐसा करने से वह जीवात्मा परमात्मा
बन जाता है ,जैसे कि पारस का संसर्ग पाकर लोहा भी स्वर्ण बन जाता
है ! चन्दन के पेड के समीप रहने वाला नीम का पेड भी चन्दन ही हो
जाया करता है !
आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महामुनिराज
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