जो पंचेन्द्रिय की आशा से रहित हैं ,खेती ,पशुपालन आरम्भ आदि से रहित हैं ,धन धान्य आदि परिग्रह से दूर हैं ,ज्ञान अभ्यास ,ध्यान समाधि और तपश्चरण मे लीन हैं ,ऐसे तपस्वी निर्ग्रन्थ गुरु प्रशंसनीय होते हैं ,पूजनीय होते हैं !
जब इन्द्रियाँ वश मे हो जाती हैं तो व्यक्ति को किसी की परवाह नही रहती ,न ही किसी वास्तु की जरूरत रह जाती है ! अत: वह पूर्व संगृहीत वस्तुओं को भी त्याग कर एक जन्मजात बच्चे के समान निर्विकार हो जाता है ! उस बच्चे मे और उन मे सिर्फ ये भेद रह जाता है कि बच्चा अबोध होता है औरवह सद्बोध .उस बच्चे को अपनी कोई खबर नही होती और ये अपने आत्म स्वरुप का चिंतन मनन हर समय करते रहते हैं ! इनकी दृष्टि मे महल और मशान .त्रण और कांचन ,सब एक समान हो जाते हैं ! मेरे द्वारा सँसार के किसी प्राणी को किसी प्रकार से पीड़ा न हो ,चींटी से लेकर हाथी तक सभी जीव सुखी रहें ऐसी भावना रखते हैं !
मूल रचना : "रत्न करंड श्रावकाचार "मानव धर्म आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी
हिन्दी व पद अनुवाद : आचार्य श्री ज्ञान सागर जी व आचार्य श्री विद्या सागर जी
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