मेरा अपना इसमें कुछ भी नहीं .........

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Monday, 26 March 2012

निर्विचिकित्सा अंग

              स्वभाव से ही अपवित्र किन्तु रत्नत्रय को धारण करने से पवित्र ऐसे धार्मिक पुरुषों के मलिन शरीर को देखकर भी उसमे ग्लानि नही करना और उसके गुणों मे प्रीति करना निर्विचिक्त्सा अंग कहलाता है !
            सभी मनुष्यों का शरीर एक से ही हाड ,मांस, मज्जा ,लहू से बना है मलमूत्र आदि का कुण्ड है ! इसमें एक के शरीर को भला व दूसरे को बुरा मानना भूल भरा है ! इस शरीर मे जितनी भी चीजे हैं कोई सारभूत नही हैं अगर इसमें सार है तो यह कि इसको पाकर तपश्चरण किया जाए ,इसे परोपकार मे लगा दिया जाए और ज्ञान संपादन किया जाए तभी यह आत्मा परम पावन पूनीत बनती है और जगत पूज्य बन सकती है ! हम देखते हैं कि रिद्धि धारी मुनियों के स्पर्श से यह भूमि परम पवित्र बन जाती है ! रिद्धि धारी मुनियों के शरीर को छूकर आई हुई वायु के स्पर्श से ही बड़े बड़े रोग दूर हो जाते हैं ! यह सब कारामात तपस्या की है !जो व्यक्ति जितना सदाचारी हो, जितना ज्ञानवान हो जितना विशवास पात्र हो ,वह उतना ही आदर पाता है ! इसीलिए जिसमे भी यह गुण हैं ,चाहे वह शरीर से गोरा हो ,काला हो रोगी हो या निरोगी हो ,लूला हो या लंगड़ा हो ,कैसा भी क्यों न हो ,बिना किसी घृणा के उसकी परिचर्या करना ही निर्विचिक्त्सा अंग का धारण करना कहलाता है  ! ऐसा करने से सर्व साधारण लोग भी सदाचरण आदि गुणों की तरफ आकर्षित होंगे !
              सँसार की सारी चीजें अपने -अपने स्वभाव के अनुसार परिणमन करती हैं ! इसमें कौन भली हैं ,कौन बुरी है ,कुछ नही कहा जा सकता ! अगर कोई बुरी चीज है या घृणा की जगह है तो मेरे सरीखे मनुष्य की आत्मा है जो कि अपने स्वभाव को (भली आदतों को ) भूल कर बुरी आदतों को अपना रहा है ! यह सोचकर घृणा करता है तो सिर्फ पापों से और किसी को  नही !
मूल रचना  :    "रत्न करंड  श्रावकाचार "मानव धर्म  आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी 
 हिन्दी व पद अनुवाद : आचार्य श्री ज्ञान सागर जी व आचार्य श्री विद्या सागर जी    

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