एक समय एक लकडहारे को लकडियाँ बीनते हुए एक चिंतामणि रत्न दिखा ! उसे देखकर उसने ये विचार किया कि यह पत्थर बड़ा सुहावना और चमकीला लगता है ! इसे घर ले चलता हूँ ,मेरा बेटा खेल लेगा ! घर आ कर उसने वह पत्थर बच्चे को खेलने को दे दिया ! उसे कहाँ पता था कि वह चिंतामणि रत्न है ,उसकी नजर मे तो वह पत्थर ही था ! उसे क्या पता था कि इससे मुझे मनवांछित वास्तु मिल सकती है मेरा दारिद्र्य दूर हो सकता है ! सायंकाल का समय हुआ तो बगैर दीपक जलाए ही अद्भुत प्रकाश फ़ैल गया ! उसने सोचा चलो जो तेल जलता था ,दिये मे उसका खर्चा तो बचेगा और वह अपनी दिनचर्या मे लग गया !
वैसे ही जंगल जाता ,लकडियाँ बीनता ,बाजार मे बेच कर अपना जीवन यापन करता रहा ! एक दिन एक महाशय उसके घर के पास से गुजरे तो उन्होंने अद्वीतीय प्रकाश देख कर उस को कहा कि तुम चिंतामणि रत्न के मालिक हो तुम ऐसे दरिद्री का जीवन क्यों जी रहे हो ! आजमाना चाहो तो कुछ भी मांग कर देख लो ! उसने बहुत भूख कि अवस्था था ,खीर की इच्छा की ,खीर हाजिर हो गयी ! सर्दी का मौसम था ,शाल की इच्छा की ,शाल हाजिर हो गयी ! घर की आकंक्षा की, घर बन गया !
कहो लक्ष्मी किसका नाम हुआ ? ज्ञान का नाम ही तो लक्ष्मी हुआ ना ! जब तक उसे नही पता था तो कुछ नही था !जब पता चला तो पता चलते ही ठाठ हो गया ! वास्तव मे ज्ञान ही आनन्द है ,वह ज्ञान थोडा या अधिक किसी न किसी रूप मे हर प्राणी के पास होता है ! परन्तु परम प्रकर्ष अवस्था को प्राप्त परिपूर्ण ज्ञान जिस महानुभाव के पास हो ,,उसे वर्धमान समझना चाहिये ! इसीलिए वह दुसरे प्राणियों का उपास्य बन जाता है जिसका कि दूसरा नाम महावीर है ! जो कि अपना कल्याण करने के साथ -२ विश्व का कल्याण करने मे भी सहकारी हो जाता है !
आचार्य श्री 108 विद्द्यासागर जी महामुनिराज
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