अपने समाज के प्रति,छल कपट रहित,सदभाव सहित यथोचित स्नेहमयी प्रवृत्ति को वात्सल्य अंग कहते हैं !
सभी के साथ सच्चे दिल से प्रेम करना और समुचित व्यवहार के द्वारा यह दिखलाते रहना कि हम आपके ही हैं ,बस इसी का नाम वात्सल्य अंग है ! किसी को भी वश मे करने का उपाय है तो परस्पर का प्रेम है ! मजबूत से मजबूत लोहे के सांकल को मनुष्य तोड़ सकता है ,परन्तु प्रेम के बंधन को नही तोड़ सकता ! देखो ,जो भौरा कठिन से कठिन काठ मे भी छेद कर डालता है ,वह कमल के अंदर पड़ा हुआ अपने प्राण तक दे देता है ,इसमें क्या कारण है ? है तो यही कि उसका उस से प्रेम है ! इसीलिए उसे जरा भी तकलीफ न देकर अपने प्राण तक दे देता है !
"पाँव पिचानि मोचडी ,नयन पिछाणी नेह " अर्थात अन्धकार मे भी हम अपनी जूतियों को अपने पैरों मे पहनकर पहचान लेते हैं ! अपनी जूतियाँ अपने पैरों मे जैसे ठीक बैठती हैं ,वैसी दूसरों की नही बैठती ! उसी प्रकार सामने वाले के प्रति हमारा प्रेम है कि नही ये हम उसके नेत्रों की तरफ गौर से देखकर पहचान लेते हैं ,जां सकते हैं ! किसी भी को दुखों दरिद्र व्यक्ति को देखकर उसकी मदद करने मे जी जान से जुट जाता है ,यही वात्सल्य अंग है !
मतलब यह है कि भला आदमी दुनिया को अपनाते हुए अपने से प्रतिकूल चलने वाले को भी रास्ता सुझाते हुए प्रसन्नता पूर्वक चलता है और विश्व भर मे अपनी छवि बनाता है !
मूल रचना : "रत्न करंड श्रावकाचार "मानव धर्म आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी
हिन्दी व पद अनुवाद : आचार्य श्री ज्ञान सागर जी व आचार्य श्री विद्या सागर जी
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