उज्जैन का चोर
प्राचीन समय की बात है उज्जैन में राजा
धनपाल का राज्य था ! एक दिवस उनकी महारानी सखियों के साथ उद्यान में टहल रही थी !
रानी अपने पूरे सोलह सिंगार में थी व उन्होंने हीरे का जगमगाता हार पहना हुआ था !
एक वेश्या भी वहाँ टहल रही थी ! नाम था वसंतसेना ! तब उसने रानी के गले में वह
बेशकीमती हार देखा ! उस हार को देखते ही उस के तो जैसे होश ही उड़ गये ! अब उसे इस
हार के अलावा और कुछ दिखाई नहीं पड रहा था !
वह जैसे तैसे अपना भवन में आई ,लेकिन मन
में अभी भी उस हार की अपने गले में होने की कल्पना कर रही थी ! उसे अब न दिन में
चैन था न रात को नींद ! हार के बिना जैसे जीवन बेकार !
दो तीन दिन बीते ! उस का प्रेमी एक चोर था
,नाम था दृढ़सूर्य ! अब वेश्या का प्रेम तो होता ही ऐसा है ,जब तक पैसा है तब तक
रहता है,तब तक ही रहता है और व्यक्ति उसकी
जवानी के क्षणिक सुख के चक्कर में अपना भला बुरा सब कुछ भूल जाता है ! चोर ने उस वेश्या
से उसके मुरझाए होना का कारण पूछा ! पता लगने पर उस चोर ने कहा –तुम उस हार का
ख्याल अपने दिमाग से निकाल दो ,मै तुम्हे वैसा ही दूसरा हार लेकर के दे दूँगा !
लेकिन वसंतसेना कहाँ मानने वाली थी उसके
दिलो दिमाग पर तो वही हार चढा हुआ था ! वेश्या की हठ के सामने उस चोर को झुकना पड़ा
! सच ही कहा है व्यक्ति को भले बुरे का ख्याल कहाँ रहता है वेश्या के चक्कर में
पडकर ! सात व्यसनों में वेश्या गमन को घोर दुःख का व नरक का कारण बताया गया है !
पहुँच गया राजा के महल में और किसी तरीके
से रानी के गले से वह हार निकाल भी लाया ,लेकिन बाहर निकलते हुए हीरे की चकाचौंध
रोशनी में सिपाहियों द्वारा पकड़ लिया गया ! राज दरबार में पेश किया गया ! शूली
दण्ड दे दिया गया ! जब बीच चौराहे पर दण्ड दिया जा रहा था ,और उसके प्राण निकलने
को थे तब उसे जिनदत्त सेठ दिखाई दिया ! सेठ की ख्याति थी पूरे नगर में ! चोर ने
सेठ से कहा –मुझे थोडा पानी पिलवा दो ,सेठ ने उसे कहा मेरे गुरु ने मुझे एक मन्त्र
दिया है ये मन्त्र तुम याद रखना जब तक मै पानी लेकर के आता हूँ ,और ये कहकर नमोकार
मन्त्र उसे दे दिया ! नमोकार को रटते रटते उस के प्राण निकल गये ! जब सेठ कुछ समय
बाद लौट कर के आया तो जैसे कि उसे आभास था ,उसके प्राण निकल चुके थे ! सेठ अपने मन
में आश्वस्त था कि एक मरते हुए प्राणी को चाहे वो कितना पापी ही था वह नमोकार
मन्त्र दे पाया और नमोकार का जाप करते हुए ही उसके प्राण निकले !
वह चोर मरकर के सौधर्म स्वर्ग में जाकर के
देव बना ! उधर राजा के सिपाहियों ने जाकर राजा के कान भर दिये के सेठ जिनदत्त भी
शायद चोर से मिला हुआ है ! राजा ने कहा –जाओ तुरंत सेठ को बुलाकर ले कर आओ ! राजा
के सिपाही उसे लेने पहुंचे ! उधर देव ने अपने अवधिज्ञान से जाना कि मेरी पर उपकार
करने वाले के ऊपर मेरे ही कारण से उपसर्ग आया है ,तब उसने आकर राजा के सिपाहियों
से सेठ को बचाया और राजदरबार में भी सेठ का मान सम्मान हुआ ! राजा ने भी जैन धरम
स्वीकार किया और जैन धरम की बहुत प्रभावना हुई !
मित्रों ! ऐसी
महान महिमा है नमोकार महामंत्र की ! जय जिनधर्म ! जय जिनागम !
आचार्य
श्री 108 गुप्तिनंदी जी के 04.08.2012 के सायं कालीन प्रवचन
से
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