आचार्यश्री गुप्तिनंदी जी द्वारा 6.8.2012
को रोहतक में दिया गया सायंकालीन प्रवचन
गुरु के समान कोई नहीं
उज्जैन नगर में किसी समय में राजा
नन्दिवर्धन राज्य करते थे ! महान निति निपुण राजा थे ! उनके राज्य में प्रजा को हर
तरह से सुख था ! उनका एक पुत्र था ,नाम था चंड प्रद्द्योत ! राजा ने उसे हर तरह की
शिक्षा दी थी जिससे कि वह बड़ा होकर न्याय नीति व निपुणता से प्रजा का जीवन सुखी कर
सके ! राजा का सोचना था कि वह राज कार्य और शस्त्र विद्या के अलावा समस्त ग्रंथों
और भाषाओं का भी अध्ययन करे ! एक समय उज्जैन राज्य में कालसंदीप नाम के विख्यात
पण्डित पधारे ! राजा ने उनकी ख्याति सुनकर उसे काल संदीप जी के पास मलेच्छ भाषा
सीखने के लिए भेज दिया !
मलेच्छ भाषा पढते हुए राजकुमार को कुछ शब्द
ऐसे थे जिन्हें बोलने और पढ़ने में अति कठिनाई का सामना करना पड़ता था ! इस कारण से
उसे कई बार गुरु कि डांट खानी पड़ती थी !
एक दिन काफी समझाने पर भी राजकुमार जब कुछ शब्दों का सही लेखन व उच्चारण नहीं कर
पाया तो उसे गुरु से मार खानी पड़ी !तब
राजकुमार ने गुस्सा करके मन में यह निश्चय किया कि जिस हाथों से तुमने मुझे मारा
है वही हाथो और पैरों को मै अपने हाथों से पीटूँगा ! काल संदीप तो अपना पाठन का
कार्य करके चले गये !
कुछ समय बीतने के बाद राजा नंदी वर्धन को
अपने जीवन की शाम दिखाई दी और वह राजकुमार चंड प्रद्द्योत को अपना राज्य सौंपकर
जिन दीक्षा धारण कर वन् में चले गये ! कुछ समय बीत जाने पर राजा के गुप्तचरों को
एक पत्र प्राप्त हुआ जिसका लेखन किसी भी दरबारी के समझ में नहीं आ रहा था ! अन्त
में वह पत्र राजा चंड प्रद्द्योत के पास लाया गया और वह पत्र देखते ही राजा की
आँखें चुधियाँ गयी ! पल पल राजा के चेहरे के बदलते भावों को देखकर दरबारी दंग थे !
कुछ न समझ पाने पर एक वरिष्ट मंत्री ने पूछा –राजन ! पहली बात तो यह कि यह पत्र
ऐसी कौन सी भाषा में है और दूसरा यह कि इस में ऐसा क्या लिखा है कि आप एक दम से
इतने चिन्तित और भय और आश्चर्य मिश्रित दिखाई देते हैं !
राजा ने उत्तर दिया –मन्त्रिवर ! यह पत्र
मलेच्छ भाषा में लिखा है और इसमें लिखा है कि दुश्मन देश के राजा ने उज्जैन पर
आक्रमण के लिए नजदीक ही की तिथि निश्चित की है ! मै आज अपने को बड़ा धन्य मान रहा
हूँ कि मैंने काल संदीप गुरु के पास जो ज्ञान प्राप्त किया था वो आज काम में आया
है ! जाओ तुरंत दुश्मन का सामना करने को सेना को तैयार करो और कुछ ही समय में राजा
ने ही उस शत्रु पर आक्रमण करके उसे परास्त कर दिया और मंत्री से कहा कि अपने
सैनिकों को आदेश दो कि मेरे गुरु काल
संदीप जी जहाँ कहीं भी है उन्हें खोज कर मुझे सूचित करें !
कुछ समय बाद काल संदीप को ढूंढते हुए जब
राजा के सैनिकों को मालूम पड़ा कि गुरु तो जगतगुरु बन गये हैं और स्वयं और विश्व के
कल्याण के लिए उन्होंने जैनेश्वरी दीक्षा स्वीकार की है तो उन्होंने यथास्थिति
राजा को सूचित की ! राजा तुरंत ही वरिष्ट मंत्रियों व प्रजाजनों को लेकर उनके
दर्शनार्थ गया और गुरु के चरणों में अपनी खूब निंदा व प्रतिक्रमण किया ! राजा ने
मंत्रियों से कहा कि आज हम सब जो दुश्मन राजा की खबर पा सके हैं तो इन गुरुदेव के
दिये हुए ज्ञान के कारण ही पा सकें हैं !
राजा की इतनी बातें सुनकर व काल संदीप मुनि
का चरित्र सुनकर उनके राज्य का एक युवक को वैराग्य उत्पन्न हो गया व उसने मुनिश्री
के चरणों में अपना कल्याण करने की इच्छा की व जैनेश्वरी दीक्षा देने की प्रार्थना
की ! उन मुनि का नाम श्वेत संदीप पड़ा !भगवान महावीर का समवशरण जब विपुलाचल पर्वत
पर आया तब उस समय वह श्वेत संदीप मुनि पास
ही आतापन योग में स्थित थे ! राजा श्रेणिक जब विपुलाचल पर्वत पर भगवान के समवशरण
में दर्शन करने के लिए आया तब रास्ते में उन्हें मुनिराज के दर्शन हुए तो उसने
हाथी से उतरकर मुनिराज को नमस्कार किया व मुनिराज का तप और कंचन सी जगमगाती काया
को देखकर पूछा कि हे मुनिराज आपके गुरु कौन हैं ! मुनिराज के मुख से अनायास ही
निकल गया कि तीर्थंकर वर्धमान महावीर ही मेरे गुरु हैं ! इतना कहना था कि मुनिराज
की कंचन सी काय काली पड गयी ! मुनिराज की काय को काली पड़ी देखकर राजा श्रेणिक को
कुछ समझ नहीं आया व मुनिराज को यथोचित प्रणाम करके भगवान के समवशरण की ओर चल पड़ा !
समवशरण में राजा श्रेणिक ने जाकर प्रभु से
सारा वर्तान्त कहा और मुनिराज की देह के काला होने का कारण पूछा ! महावीर प्रभु ने
अपनी दिव्य देशना में कहा कि हे राजा श्रेणिक उन मुनिराज से एक भूल हो गयी है कि
उन्होंने अपने गुरु का नाम न बताकर मुझे ही अपना गुरु कह दिया जबकि उनके दीक्षा
गुरु जो हैं वो काल संदीप जी हैं और वह इस समय समव शरण में ही विराजमान हैं !
राजा श्रेणिक कुछ समय बाद प्रभु के दर्शन
कर वापस लौटे ! और रास्ते में फिर से मुनिराज श्वेत संदीप के दर्शन करने के लिए रुके
! राजा श्रेणिक ने उन मुनिराज को संबोधित
करते हुए कहा कि हे मुनिराज ! तीर्थंकर प्रभु की दिव्य ध्वनि में यह आया है कि
आपके दीक्षा गुरु काल संदीप जी हैं लेकिन अनायास ही आपके वर्धमान स्वामी को अपना
गुरु कहने से आपकी यह कंचन सी स्वर्णमयी काय काली हो गयी है ! एक पल में ही
मुनिराज के विचार परिवर्तित हो गये ! ओह ये मुझसे क्या हो गया ? कैसे हो गया ?
क्यों हो गया ? कैसे मै अपने उपकारी को एक क्षण के लिए ही सही भूल गया ! धिक्कार
है मेरे इस जीवन को ! काय वापस कंचन सी हो गयी व अत्यन्त विशुद्धि की स्थिति
उत्पन्न हो गयी और अंतर्मुहुरत में ही मुनिराज को केवलज्ञान की प्राप्ति हो गयी व
अरिहंत बन गये !
आचार्यश्री ने कहा कि कभी भी हमें गुरु के
किये हुए उपकार को नहीं भूलना चाहिये और कभी भी किसी की दी हुई शिक्षा को अपनी
कहकर या उसकी जगह किसी और की कहकर अपनी
बडाई नहीं करनी चाहिये ! यही इस द्रष्टान्त का उपदेश है और यही मेरा उद्देश्य है !
इस दृष्टान्त को प्रस्तुत करने में जो
त्रुटि रह गयी हों वो मेरी अपनी हैं व उनके लिए मै क्षमा प्रार्थी हूँ ! सुधिजन
मेरा मार्गदर्शन करें !
आचार्यश्री गुप्तिनंदी जी द्वारा 6.8.2012
को रोहतक में दिया गया सायंकालीन प्रवचन
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