जीवन दृष्टि
तीर्थंकर महावीर का समवशरण राजगृही नगरी
में पहुंचा ! राजा श्रेणिक के साथ साथ उस
समवशरण में मंत्री अभयकुमार और राजगृही का क्रूर कसाई काल्सौकारिक भी मन
में कौतुहल लिए हुए बेठे थे ! शान्ति और समता की धारा बह रही थी कि अचानक एक वृद्ध
पुरुष फटे पुराने कपड़ों में सभा में आगे बढ़ा ! सम्राट श्रेणिक की और मुख करके बोला
–सम्राट ! तुम जीते रहो ! लोग आश्चर्यचकित थे ! कैसा असभ्य और ढीठ है ! प्रभु
महावीर को वंदन नमस्कार न करके राजा को आशीष दे रहा है ! खुशामदी कहीं का ! तभी
वृद्ध पुरुष ने प्रभु महावीर की ओर मुख करके कहा –तुम मर जाओ ! अब तो सम्राट के
गुस्से का भी पार ना था लेकिन ये प्रभु का समवशरण है यहाँ राजा और रंक सब एक समान
हैं ,श्रेणिक यह सोच कर चुप रह गया ! प्रभु के सिवा यहाँ किसी को भी किसी से कुछ
कहने का अधिकार नहीं ! तभी अचानक वह मंत्री अभयकुमार की ओर दृष्टि करता हुआ बोला –तुम
चाहे मरो ,चाहे जियो ! अब तो सब क्रोध मिश्रित आश्चर्य से वृद्ध को देखने लगे कि
यह क्या बकवास कर रहा है क्या नहीं ? इतने में ही वह बुढा काल्सौकारिक को देखते
हुए कहने लगा –भद्र ! तुम न मरो ,न जियो !
सारी सभा स्तब्ध थी ! एकाएक ही पलक झपकते
ही वह बुढा गायब हो गया ! सम्राट ने प्रभु से निवेदन किया –प्रभु ! कौन था यह
वृद्ध ? और क्या रहस्य था इसकी जीवन मरण की बातों में ? क्या बकवास कर रहा था जो
आपका अविनय किया ? या विक्षिप्त अवस्था में था ?
प्रभु ने अपनी धीर गंभीर वाणी में कहा –राजन
! यह व्यक्ति मनुष्य नहीं बल्कि देव था और
इसकी वाणी में जीवन का सत्य समाया हुआ था ! वृद्ध ने तुमसे कहा –तुम्हारे लिए
जितने दिन यह जीवन है तुम्हे भौतिक सुख और ऐश्वर्य का अम्बार लगा हुआ है ,जितने
दिन यह जीवन है तुम्हारे लिए फूलों की सेज है आगे क्या है ,आगे घोर दुःख और नरक है
अगले जीवन में ! इसीलिए तुम्हारा जीना ही सुखकारी है ,मरण नहीं ! प्रभु महावीर की
वाणी ने एक क्षण को सम्राट श्रेणिक को अंदर तक हिला दिया ,किन्तु धैर्य और
उत्सुकता ने सहारा दिया ! वह दो क्षण को रुका और अगले प्रश्न की ओर बढ़ा –परन्तु आप
जैसे दिव्य पुरुष को उसने मर जाने को कहा ? ऐसा क्यों ?
राजन –साधना के द्वारा अन्तर के राग द्वेष
आदि मल धो देने के बाद ही अरिहंत अवस्था की प्राप्ति होती है परन्तु अरिहंत अवस्था
ही जीवन की अंतिम अवस्था नहीं है ,मुक्त सिद्ध दशा ही जीवन की सर्वोत्कृष्ट
आध्यात्मिक दशा है ! पूर्व बद्ध कर्मों का भोग अभी भी चल रहा है ,मै अभी उससे
मुक्त नहीं हुआ हूँ अत: वह मेरे वर्तमान देह को बंधन मानता है और मरण को मुक्ति !
दो प्रश्नों का समाधान हुआ ! जिज्ञासा
तीसरे प्रश्न की ओर बढ़ी !प्रभु ने समाधान
करते हुए कहा –अभयकुमार के जीवन में भोग भी है और त्याग भी ! फूलों से रस लेते हुए
भ्रमर की तरह वह जीवन का रस लेते हुए उसमे डूबते नहीं हैं ,जो भी कर रहे है
कर्तव्य भाव से कर रहे हैं इसलिए उसका यह जीवन भी सुखी है और अगला आने वाला भव भी
! इसीलिए वह चाहे जिये ,चाहे मरे ! सम्राट को अपने जीवन पर ग्लानि होने लगी और अभय
की जीवन दृष्टि के प्रति धन्यता ! शुद्ध स्पर्धा ! परन्तु अभी अंतिम प्रश्न का
उत्तर समझना बाकी था !
प्रभु ने कहा –श्रेणिक इसका भाव तो बिलकुल
स्पष्ट है ! न मरो ,न जीयो – काल्सौकारिक का यह जीवन तो दुःख दरिद्री और घृणा से
भरा ही हुआ है ,साथ ही हिंसा और क्रूरता का महापापी भी है ,इसीलिए यह इस जन्म में
तो नरक के समान जीवन भोग ही रहा है और अगले भव में भी कैसे इसका उद्धार हो सकता है
,कैसे इसके जीवन में सुख शान्ति आ सकती है ? इसीलिए इसको कहा कि न मरो ,न जियो ! न
उसका जीना अच्छा है न ही मरना !
इसका अर्थ हुआ कि जो विवेक कि दृष्टि खुली
रखकर जीता है ,उसके दोनों जीवन सुखमय होते हैं ! वस्तुत: यही सच्ची जीवन दृष्टि है
!
उपाध्याय अमर मुनि जी की “जैन इतिहास की
अमर कथाएं” से
(शब्दों के चयन में हुई किसी त्रुटि के लिए मै
क्षमा प्रार्थी हूँ ,विषय वस्तु को संक्षिप्त करने के लिए ऐसा किया गया है )
काल्सौकारिक
से सम्बंधित एक और पोस्ट पढ़ने के लिए देखें “कौवे के घर में हँस” दिनांक 1 May
2012 at http://www.teerthankar.blogspot.com
No comments:
Post a Comment