जीवन और आनन्द
जिस प्रकार एक फूटे हुए घड़े से बूंद बूंद करके जल निकलता रहता है
और कुछ काल में घड़ा खाली हो जाता है ,प्राणी जीवन की भी यही स्थिति है , यही दशा
है !
जीवन में यदि आप दान देते हैं , सेवा करते हैं ,अध्ययन करते हैं या
और कोई भी सत्कर्म करते हैं तो उसमे आनन्द प्राप्त करने की कोशिश करें !आनन्द जब
मिलेगा जब उसमे आपकी श्रद्धा होगी ,आपके मन में उस सत्कर्म के प्रति रस होगा !
जिसे आप गहरी दिलचस्पी कहते हैं वह रस ही तो है ! जब रस उमड़ पड़ेगा तो न विकल्पों
का डर रहेगा न मन की चंचलता का ! तन आपका उस सत्कर्म में लग जायगा और मन उसके
आनन्द में विभोर हो जाएगा !फिर न किसी प्रेरणा की अपेक्षा रहेंगी ,न उपदेश की ! बस
अपने आप ही सब अपेक्षाएं पूरी होती चली जायेगी और जीवन में अपार आनन्द और शान्ति की अनुभूति होनी प्रारंभ हो जायेगी !
एक साधु की वैय्यावृति करने में आनन्द पाने वाले व्यक्ति को भीड़- भाड भरे वातावरण में
मुनियों के आहार दान के समय शायद उतना आनन्द न आये जितना एक सडक पर निससहाय बच्चे को दो बिस्कुट खिला कर आ जाए !
यदि कोई व्यक्ति धर्म
प्रभावना में अति आनन्द का अनुभव करता है तो पूजा पाठ उस व्यक्ति के लिए
प्राथमिकता नहीं हो सकती ! यदि किसी को औरों के चेहरे पर मुस्कान ला कर अति आनन्द
की अनुभूति होती है तो वह अनुभूति उसे किसी और कार्य में नहीं आ सकती !
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