जय जिनेन्द्र बंधुओं ! प्रणाम ! शुभ प्रात: !
ध्यान से बात करना अलग है
और ध्यान की बात करना अलग है ! ध्यान केन्द्र खोलने मात्र से ध्यान केंद्रित हो
जाना संभव नहीं है ! ध्यान से बात करना सामन्य साधक की बात नहीं है ! जो बड़े श्रेष्ट साधक होते हैं
,वही ध्यान से बात कर सकते हैं ! ध्यान मे
लीन हो जाने पर ध्याता ,ध्यान व ध्येय एक हो जाते हैं ! भेद का सवाल ही नहीं रह
जाता है !
शब्दों के शोर मे दिखता अजब तमाशा है ,
ध्यान सिंधु मे उतरो तो
मिलता जब बताशा है !
आत्मा की बात ओठों से
नहीं की जाती है ,
उतरो ध्यान सिंधु मे ,
जहाँ भाषा मूक हो जाती है !
आर्यिका माँ श्री
प्रशान्तमति जी “माटी की मुस्कान” मे ! आचार्य श्री विद्यासागर जी की “मूक माटी”
पर आधारित !
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