जय जिनेन्द्र बंधुओं ! प्रणाम ! शुभ प्रात: !
सेठ चामुण्डराय ने
अपनी माता के कहे अनुसार बाहुबली भगवान की मूर्ति का निर्माण प्रारंभ कराया तब
उन्होंने शिल्पकार को जितना पत्थर तराशे उस के बराबर वजन का स्वर्ण देना तय किया
था ! शिल्पकार जब प्रथम चरण के श्रम का फलस्वरूप प्राप्त स्वर्ण लेकर अपनी माँ के
पास गया तो वह स्वर्ण उसके हाथ से छूट न
सका ! तब आचार्य नेमीचन्द्र ने उससे कहा –तुम्हारा धन से अधिक मोह है ,इसीलिए यह
धन हाथों से चिपक गया है ! एक बेटा माँ के लिए धन का त्याग कर रहा है और दूसरा धन
ग्रहण ! इस संबोधन से शिल्पी का मोह भंग हुआ और चित्त मे भगवान की भक्ति जागृत हुई
! इसी भावावस्था मे उसने भगवान की मुखाकृति को उत्कीर्ण किया ! वह आकृति इतनी
मनमोहक व दर्शनीय बनी कि एक हजार से अधिक वर्ष व्यतीत होने के बाद भी दर्शन करने
वालों के मन को मोह लेती है ! वास्तव मे वह मुखाकृति कलाकार के मन के भावों का
प्रतिबिम्ब ही है !
यहाँ कहने का
तात्पर्य यह है कि जो भी कार्य,जिस भी परिस्थिति मे किया जाय उसमे सम्पूर्ण आनन्द
की प्राप्ति करें ,तभी हमारा वह कार्य सार्थक हो सकता है !
पोस्ट का कुछ अंश माँ
कौशल जी की पुस्तक “आध्यात्म गंगा” से लिया गया है ! शब्द मेरे अपने हैं !
No comments:
Post a Comment