कलश और नींव
मंदिर के कलशारोहण के पश्चात नीचे दबी नींव ने कलश से सस्नेह कहा - तुम आ गए बंधू ,अपने बंधू के दर्शन से अपर बंधू को आनन्द प्राप्त होता है !
कलश ने घृणा भरी दृष्टि डाली और गर्व से कहा -तुम जमीन के नीचे धंसी निम्न और मै आकाश में उन्मुख उच्च ! फिर तुम में और मुझ में कैसी मित्रता ,कैसा बन्धुत्व !
इसीलिए की तुम और मै एक ही मंदिर के अवयव हैं -नींव ने मुस्कान बिखेरते हुए कहा !
हा हा हा ,तुम अँधेरे में लिपटी धुल मिटटी में सनी और मै उज्जवल चमकीले प्रकाश में, बन्धुत्व कैसा ? और ........
मेरा शरीर बहुमूल्य धातु से निर्मित हुआ है और तुम ..............कंकरों पत्थरों से से बनी हुई -कलश ने घमंड से कहा !
तुम्हारी और मेरी जननी एक खदान ही तो है ,बस फर्क सिर्फ इतना है कि तुम संस्कारित हो और मै प्राकर्तिक रूप में ! भाग्य ने तुम्हे शिखर पर बिठाया है और मुझे पादमूल में !
तुम वर्तमान को देखो -मै कितना उच्च और तुम तिमिरावृत ..........इतनी विषमता में समता कहाँ शोभनीय है
अपमानित नींव कुछ धीरे लेकिन गंभीर स्वर में बोली --ठीक है पर तुम ये मत भूल जाना कि ये दीवारें और गुम्बद जिनके सिर पर चढ कर तुम इतना इतरा रहे हो , मेरे ऊपर ही खड़े हैं -मै अगर एक करवट ले लूँ तो तुम सबका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा !
अब कलश ने गंभीरता से सोचकर नम्रता से कहा - सत्य कहते हो बन्धु ! उच्च कहलाने वाले कितने निम्नों पर आश्रित हैं ! उनके कंधे पर खड़े होकर वे ऊँचे होने का गर्व करते हैं !लेकिन वास्तव में हम सब समान धरातल पर हैं !
तभी से नींव और कलश में बन्धुत्व है ,नींव भी मजबूती से दीवारों,गुम्बद को थामे हुए है !
तभी से नींव और कलश में बन्धुत्व है ,नींव भी मजबूती से दीवारों,गुम्बद को थामे हुए है !
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