मृत्यु का समय निकट था ! महाकवि भारवि ने पुत्र से कहा -"मै तुम्हे एक सम्पदा देकर जा रहा हूँ !" पुत्र ने कहा -"वह सम्पदा क्या है ?,कहाँ है ? " भारवि ने एक श्लोक लिखकर देते हुए पुत्र को कहा -"जब भी किसी प्रकार की आर्थिक समस्या या अन्य कोई विपदा आये तो तुम इस श्लोक को एक लाख रुपये मे बेच देना ! उस युग मे नगर मे हाटें लगती थी ! परम्परा थी - हाट मे दिन भर की बिक्री के बाद जो कोई भी वस्तु दुकानदार के पास बच जाती थी ,उसे राज्य द्वारा खरीद लिया जाता ! भारवि की मृत्यु के बाद उनका पुत्र आर्थिक कठिनाई मे घिर गया ! विपत्ति के उन क्षणों मे उसने अपने पिता द्वारा दिये हुए उस श्लोक को बेचने का निश्चय किया ! पिता के आदेशानुसार उस श्लोक को लेकर बाजार मे गया ! उसे एक स्थान पर टांग दिया !लोग आते ,उस श्लोक को देखते हैं ! भारवि पुत्र उस श्लोक का मूल्य एक लाख रुपये बताता है ! एक लाख मुद्राएं ! एक श्लोक के लिए एक लाख मुद्राएं कौन दे ? उसे लेने वाला कोई नही मिला !संध्या का समय ! उसे लेने वाला कोई नही मिला तो राज परंपरा के अनुसार बची हुई वास्तु के रूप मे वह श्लोक राजा द्वारा खरीद लिया गया ! राजा ने उसे फ्रेम मे मढ़ाया व मढ़ाकर अपने शयन कक्ष की दीवार पर लटका दिया ! कालंतर मे राजा परदेश गया और वहाँ उसे बहुत समय लग गया ! जिस समय वह लौटकर आया तो अपने शयनकक्ष मे घुसते ही मद्धिम रोशनी मे उसे दो दिखा तो वह अवाक रह गया ! रानी एक युवक के साथ सो रही थी ! यह देखते ही राजा क्रोध से भर गया ! दोनों को मारने के लिए उसने तलवार निकाल ली ! जैसे ही उसने वह तलवार निकाली दीवार पर टंगा वह श्लोक राजा के सामने आ गया ! उस पर लिखा था " सहसा विदधीत न क्रियाम्" अर्थात सहसा कोई काम नही करना चाहिए ! श्लोक पढते ही तलवार के साथ उठा राजा का हाथ झूक गया ! उसने रानी को आवाज दी ! रानी जागी ,उसने भाव विहल होकर राजा का स्वागत किया ! राजा के मन मे अभी शल्य बाकी था ! आवेश मे बोला -यह कौन है साथ मे ? रानी बोली -इसे नही पहचान पा रहे हैं ! यह आपकी पुत्री वसुमती है ! आज नाट्य ग्रह मे राजा का वेष बनाकर अभिनय किया था ! देर से आकर उसी वेष मे मेरे साथ सो गयी ! राजा पुत्री को पुरुष के वेष मे देख कर अवाक रह गया ! बड़े गदगद स्वर मे बोला -"इस श्लोक को एक लाख मे खरीद कर मैंने सोचा था कि कौड़ी की चीज के एक लाख मुद्राएं दे दी ,किन्तु आज लगता है इसके लिए एक करोड स्वर्ण मुद्राएं भी कम हैं ! एक भयंकर त्रासदी से इस श्लोक ने मुझे आज बचा लिया !
संवेग आया ,प्रबल हुआ और तत्काल वो काम कर लिया तो पश्चाताप के सिवा और कुछ नही बचता ! सहसा कोई काम नही करना चाहिए ! सहसा संवेग भी नही होना चाहिए !
आचार्य श्री महाप्रज्ञ की पुस्तक "अंतस्तल का स्पर्श " से
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