मेरा अपना इसमें कुछ भी नहीं .........

जो भी कुछ यहाँ लिखा है जिनेन्द्र देव और जैन तीर्थंकरों की वाणी है !

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Monday, 16 April 2012

गुण ग्रहण का भाव रहे नित

एक व्यापारी ने अनुभवी विद्वान के समक्ष अपनी समस्या प्रस्तुत करते हुए कहा -मेरे पास सब प्रकार के ग्राहक आते हैं ! अच्छे बुरे दोनों तरह के लोग आते हैं ! सही गलत सब प्रकार की बातें सुननी होती हैं ! अनेक बातों को मै सहन नही कर पाता ! अनेक बार मेरा मन बुरी बातों की आकृष्ट हो जाता है ! मै बुराई से कैसे बचूं ? आप कोई उपाय बताइये ! अनुभवी विद्द्वान ने पास रखे कांच के गिलास को उठाया ! उसमे कुछ मिटटी डाली ! वह गिलास व्यापारी को देकर कहा -इस गिलास को ले जाओ ! इसे नल की टोंटी के नीचे रख दो !
व्यापारी ने पूछा - "वहाँ कब तक रखना है "
"जब तक पानी मे से बह कर यह सारी मिटटी निकल न जाए ,केवल स्वच्छ पानी न रह जाए तब तक "
व्यापारी गिलास को लेकर चला गया ! उसने  गिलास को नल की टोंटी के नीचे रख दिया ! ऊपर से पानी गिर रहा था !जैसे जैसे गिलास भरा ,नीचे गयी हुई मिटटी पानी के साथ बाहर आती व बह जाती ! कुछ देर तक यह क्रम चलता रहा ! गिलास मे भरी मिटटी एकदम साफ़ हो गयी ! साफ़ पानी ही शेष रह गया ! व्यापारी स्वच्छ जल से भरा गिलास ले कर विद्द्वान के पास आया और गिलास हाथ मे थमाते हुए कहा -मान्यवर ,अब समझाएं मुझे क्या करना है ! मेरे प्रश्न का उत्तर क्या है ?
विद्द्वान ने कहा -मैंने उत्तर दे दिया है ! 
महाशय ! क्या उत्तर दिया ? कुछ समझा नही ! 
उत्तर यही है कि तुम इतनी स्वच्छता का वरन करो कि तुम्हारे भीतर  जमा हुआ सारा कचरा बाहर निकल जाए !
उसके पश्चात तुम्हारे मन पर गलत बातों का कोई प्रभाव नही होगा ! तुम्हारी गुण ग्रहण की  शक्ति इतनी  मजबूत हो जाएगी कि दोष तुम्हे कभी आक्रान्त नही कर पायेंगे !
आचार्य श्री महाप्रज्ञ की पुस्तक "अंतस्तल का स्पर्श " से

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