भील और उसकी पत्नी कहीं जा रहे थे ! रास्ते मे श्वेत मोती का हार पड़ा मिल गया ! भील ने कहा -देखो ,रत्नों की माला है ,पहन लो ! भील की पत्नी बोली -"नही चाहिए ऐसी माला ! केवल श्वेत मोती हैं ! इनसे तो अच्छा है मेरे गले मे पडा हुआ गुंगचियों का हार ! लाल और काले रंग का यह हार कितना अच्छा लगता है ! इसके सामने ये मोती कुछ भी नही हैं !
जिसने गुंगचियों के रक्त -श्याम रंग को ही मूल्यवान माना है ,वह कभी महार्ध्य रत्नों का मूल्य नही आँक सकता ! गुणों के मूल्यांकन के लिए जैसी दृष्टि चाहिए ,वह सबको प्राप्त नही होती !
जब किसी के गुणानुवाद का प्रसंग आता है तो मुहँ बंद सा हो जाता है! जब किसी की निंदा का प्रसंग आता है ,अवर्णवाद का प्रंसग आता है मुहँ विकस्वर बन जाता है ! गुणी के गुणों की पहचान और मुलांकन करने मे सब व्यक्ति कुशल नही होते ! रत्न की पहचान और मूल्यांकन करने के लिए जितना एक जौहरी कर सकता है ,उतना आदिवासी भील नही कर सकता ! एक आदिवासी रत्न को कांच का टुकड़ा मानता है ,उसके लिए उसका मूल्य होता है पांच रुपये ! एक रत्न परीक्षक रत्न को बहुमूल्य मणि और पन्ने के रूप मे देखता है ! और उसके लिए वह एक लाख रूपये का भी हो सकता है और नो लाख या एक करोड का भी हो सकता है !
मुनिश्री का आशय यह है कि हम गुणों की पूजा करें न कि दिखावे पर जाए और इस नर जन्म को सफल बनाएँ !
आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी की पुस्तक "अंतस्तल का स्पर्श "से
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