भक्ति का सूचक शब्द है -"त्वाम" ! किसी बड़े आदमी को "तु " अथवा "तुम" कह दो तो कई लोग बुरा मान लेते हैं ,इसीलिए आप कहना पड़ता है ! आप शब्द मे रस तो नही है,किन्तु व्यक्ति यह मानकर "आप" शब्द का प्रयोग करता है कि अमुक व्यक्ति बड़ा है ! भगवान भी बड़े हैं ,किन्तु वे भक्त से बड़े नही हैं !
प्रश्न आया -"बड़ा कौन है ?"
कहा गया -"पृथ्वी बड़ी है"
"क्या पृथ्वी से बड़ा कोई नही है "
"पृथ्वी से बड़ा है समुद्र ! पृथ्वी का भाग बहुत छोटा है ,जल का भाग बहुत बड़ा है ! "
"क्या समुद्र से बड़ा कोई नही है ?"
"आकाश समुद्र से बड़ा है "
तर्क आगे बढ़ा -"आकाश से बड़ा कौन है ?"
"आकाश से बड़ा है भगवान ! उसमे आकाश समाया हुआ है ! "
"क्या भगवान सब से बड़ा है ?"
"नही ,भगवान से बड़ा है भक्त ! भक्त के ह्रदय मे भगवान समा जाते हैं ,इसीलिए भक्त भगवान से भी बड़ा है !
भक्त बड़ा है ,इसीलिए वह भगवान के लिए "त्वाम" शब्द का प्रयोग कर सकता है ! यदि वह बड़ा नही होता तो उसे "तु" नही कहना पड़ता ! भक्ति इतनी महान होती है कि उसमे "तु" का प्रयोग होता है ! यदि "तु" नही होता तो भक्ति का रस ही समाप्त हो जाएगा ! भक्ति मे जो रस है वो त्वाम -"तु" कहने मे ही है !
आचार्य मानतुंग जी भक्तामर के 23वे शलोक मे कहते हैं -
'त्वमामनन्ति मुनय: परमं पुमांस -
मादित्यवर्णममलम तमस: परस्तात '
भक्तामर के प्रत्येक श्लोक मेआचार्य मानतुंग जी ने प्रभु आदिनाथ के किये 'तु' या 'तुम'शब्द का ही का प्रयोग किया है ! और वही मानतुंग आचार्य अपनी भक्ति से 48 तालों को अपनी भक्ति व श्रद्धा से तोड़ कर बाहर आ जाते हैं ! यह सिद्ध करता है कि "भक्त के वश मे है भगवान "
आचार्य महाप्रज्ञ जी "अंतस्तल का स्पर्श " मे
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