मेरा अपना इसमें कुछ भी नहीं .........

जो भी कुछ यहाँ लिखा है जिनेन्द्र देव और जैन तीर्थंकरों की वाणी है !

जैन साधुओं व साध्वियों के प्रवचन हैं !!

सभी को इसे Copy/Share करने की स्वतंत्रता है !

कोई कापीराइट नहीं ..........

Monday, 30 April 2012

फल की नही ,अमरफल की भावना करो ,चाहना करो


एक संत रंगनाथ जी हुए हैं जब वह बच्चे थे तो उनके पिता ने उनको बाजार से फल लाने के लिए कहा ! वो फल लेने बाजार मे गए तब रास्ते मे उन्होंने एक पीड़ित परिवार को देखा ! वह परिवार तीन दिन से भूखा था ! उन्होंने सारे विकल्प छोड़कर उस परिवार को भोजन लाकर दे दिया ! तीन दिन के बाद भोजन मिलने पर उन्हें हार्दिक प्रसन्नता कि अनुभूति हुई ! इधर रंगनाथ जी  खाली हाथ घर पहुंचे ! जब वह घर पहुंचे तो पिता ने कहा क्यों बेटा तुम फल नही लेकर आए ? तो रंगनाथ जी ने कहा कि पिताजी मै फल नही अमरफल लेकर आया हूँ ! तो रंगनाथ जी ने कहा पिताजी आपने कहा था कि दीं दुखियों की सेवा करने से परलोक मे अमरफल मिलता है ,इसीलिए जब मै फल लेने गया तो एक पीड़ित परिवार मुझे दिखा तो मैंने उन पैसों से उन्हें भोजन लाकर खिला दिया ! पिताजी ,मै फल लेकर आता और हम सभी फल खाते तो हमारा मुहँ कुछ देर के लिए मीठा होता पर उनकी तो तीन दिन की भूख चली गई ! इतना सुनना था कि पिता ने उन्हें छाती से लगा लिया !
ये है करुणा का एक अनुकरणीय उदाहरण ! वो करुणा अपने अंदर जाग्रत हो ! अपनों पर तो सभी करुणा कर लेते हैं पर जो करुणा सब के ऊपर हो ,वो करुणा हम सब के जीवन मे विकसित हो !वो करुणा हमारे अंदर तभी विकसित होगी जब संवेदनाएं विकसित होंगी !
लेकिन मेरा ऐसा देखने मे आता है कि आज के मानव मे संवेदनाएं समाप्त होती जा रही है ! हर पल हर समय मनुष्य सिर्फ पैसे के पीछे भाग रहा है ,फिर जीवन मे करुणा का विकास कहाँ से होगा

Sunday, 29 April 2012

असली आँख मरुस्थल जैसी ,नकली मे नीर छलकता है !

एक सेठ था ,बड़ा ही कंजूस था ! एक दिन एक भिखारी उसके यहाँ पहुँच गया ! 
बोला -सेठ जी कुछ दे दो ! उस इलाके मे शायद नया नया भिखारी था ,बाकी भिखारी तो जानते थे की इसके पास कुछ मिलना तो है नही ! पर वो नही जानता था इसीलिए पहुँच गया ! सेठ ने उसे टालना चाहा !भिखारी ने कहा सेठ जी दो दिन से भूखा हूँ ! कुछ दे दो ! सेठ जी ने कहा चलो यहाँ से ,सुबह सुबह आ जाते हो ,तो भिखारी ने कहा कि सेठ जी कुछ तो दे ही  दो आज तो खाली नही जाऊँगा ! रोने गिडगिडाने लगा ,जाने का नाम ही ना ले  ! सेठ जी खीजते हुए कहा - मेरी दो आँखें हैं ,इनमे से एक आँख नकली है,पत्थर की , और एक आँख असली है ! तुम यह बता दो कि कौन सी आँख असली है और कौन सी नकली !भिखारी ने गौर से दोनों आँखों कि ओर  देखा और कहा कि सेठ साहब आपकी बाइं आँख पत्थर की है ! हकीकत मे उस सेठ की बाइं आँख ही पत्थर की थी ! सेठ ने कहा -तुमने बिलकुल सही बताया ,मगर एक बात और बताओ कि तुमने कैसे जाना कि मेरी बाइं आँख ही पत्थर की है ! भिखारी ने कहा -सेठ जी उसी बाइं आँख मे ही थोडा थोडा पानी दिख रहा था ! कंजूस आदमी की असली आँख मे पानी नही  आ  सकता है नकली आँख मे ही पानी आ सकता है ! सत्य है जिसकी आँखों मे पराई पीड़ा को देखकर नीर न बहे उस व्यक्ति को बहुत कठोर समझना चाहिए !
आचार्य श्री कहते हैं 
भूखे परिजन देखकर भोजन करते आप !
फिर भी खुद को समझते दयामूर्ति निष्पाप !!
अरे  कोई भूखा बैठा है और आप खुद खा रहे हो और अपने आपको दयालु समझ रहे हो ! नही ,आपका कर्तव्य तो यही है की आप किसी को रोटी खिला कर ही खाएं ,यही हमारी संस्कृति है !धरम के इस स्वरुप को आत्मसात करो और फिर देखो धर्म की प्रभावना का क्या स्वरुप होता है ! लेकिन दुःख इस बात का है कि आज लोग इं बातों की अनदेखी करने लगे हैं !


Saturday, 28 April 2012

जीविका व जीवनोंद्धार

बहत्तर कलाओं मे दो प्रमुख हैं ,जीविका व जीवनोंद्धार पर हम सिर्फ जीविका के पीछे पागल हो रहे हैं !जीवनोद्धार का ध्यान ही नही होता है ! आदमी अपने जीवन के विषय मे बहुत प्रकार की योजना बनाता है ,मुझे ये करना है ,मुझे वो करना है सब कुछ सोचता है पर कभी ये नही सोचता कि मुझे करना ही करना है कि अन्त मे मरना भी है ! कभी न कभी तो मरूंगा और कब मरूँगा कोई पता नही है ! हो सकता है कि ,हमें जो करना है हम जो सोच रहे हैं वह हम कर पायें या नही और बीच मे ही मर जाएँ ,इसीलिए इससे पहले कि मरण हो तो तुम सुमिरण को ध्यान मे रखो ! मृत्यु एक पल ही आती है लेकिन उस मृत्यु की अनिवार्यता और अपरीहार्यता  को समझने वाला ही अपने जीवन का सही सत्कार कर सकता है ! जो व्यक्ति शरीर की नश्वरता और आत्मा की अमरता का बोध रखते हैं वे कभी सँसार मे उलझते नही हैं !उनका जीवन बहुत संतुलित और सधा हुआ रहता है !वो संसार मे रहते तो हैं पर अपने जीवन को सधा हुआ बनाए रखते हैं ! सम्यक दृष्टि की यही विशेषता होती है कि वो जानता है  कि मै यहाँ आया हूँ और एक दिन मुझे जाना है और जब मुझे यहाँ से जाना है तो मुझे वही करना है जो मेरे लिए सबसे करणीय है ! मुझे क्या करना है और क्या नही करना है ये मनुष्य को स्वयं सोचना चाहिए ! सँसार से भय होने का अर्थ है अपने जीवन की  प्राथमिकता

परमार्थ को शामिल कर लेना !    

Friday, 27 April 2012

भागो नही जागो

संत कहते हैं सँसार का मार्ग बड़ा खतरनाक है ! इस मार्ग पर तुम्हे कदम कदम पर संभल कर चलना पड़ता है ! थोड़ी सी भी चूक हुई तो गए काम से !जैसे कोई हिमालय पर चढ़ना चाहता हो तो उसे एक एक कदम संभाल कर चढ़ना पड़ता है ! सजगता और सावधानी से ,क्योंकि एक कदम भी संतुलन गडबडाया तो उसे नीचे आने से कोई नही रोक सकता है !
धर्मात्मा जीव भी अपने जीवन को उत्कर्ष तक ले जाना चाहता है ! उसका ध्येय ऊँचाई तक जाना है ,शिखर को छूना है ,तो उसके लिए सावधानी भी निहायत जरूरी है ! और इसी सावधानी का नाम है संवेग ! शास्त्रों मे लिखा है "सँसार से भय का नाम संवेग है " कुछ लोग कहेंगे की महाराज ! ये कहा जाता है कि भय तो मनुष्य की एक बड़ी दुर्बलता है और इस भय को दूर करना चाहिये और अभय का उपदेश दिया जाता है ? पर यहाँ तो भय का उपदेश दिया जा रहा है और वह भी एक सम्यक दृष्टि की विशेषता के रूप मे ! हाँ ,बंधुओं ! सम्यक दृष्टि और अज्ञानी मे यही अन्तर है ! सम्यक दृष्टि सँसार  से भय करता है और मिथ्यादृष्टि अज्ञानी सांसारिक लोगों से ! संसारी परिस्थितयों से भागना अज्ञानी का काम है और सांसारिक परिस्थितियों से भय रखकर जागरूक रहना यह ज्ञानी का लक्षण है ! बहुतेरे लोग ऐसे हैं जिनके जीवन मे कोई ना कोई भय व्याप्त रहता ही है ! कभी कभी वह इन परिस्थितियों से पीठ दिखाकर भागना भी शुरू कर देते हैं ,संत कहते हैं भागो नही जागो ! भाग कर के जाओगे कहाँ ?
 रास्ते पर चल रहे हैं और आगे बहुत गहरी खाई है पर सडक के किनारे यदि संकेत सूचक चिन्ह है जो ये बता रहे हैं आगे कुछ दूरी पर गहरी खाई है तो इसका मतलब यह नही कि इस खाई को देखकर तुम गाडी मोड दो ! उस मार्ग सूचक संकेत का आशय सिर्फ इतना है कि आगे तुम अपने ब्रेक को संभाल लो ! जिस गति से तुम अभी चल आरहे हो उस गति से न चलाकर कुछ धीमी गति से, सावधानी से चलो ! 
संत भी यही कहते हैं ,जीवन मे ढलान है तो अपने ब्रेक संभाल लो ,ताकि तुम गर्त मे गिरने से बच जाओ ! सावधानी से अपना जीवन जियो ! बस यही है संवेग ! हमारे सद्गुरु जो संकेत देते हैं ,हमारे शास्त्र जो मार्ग दर्शन देते हैं उनकी उपेक्षा करके जो इस सँसार के मार्ग पर आगे बढते हैं उनका जीवन हमेशा के लिए विनष्ट हो जाता है ! भव भावान्त्रों से हमारे साथ यही होता आया है ! हमने अपने सँसार कि यात्रा को आँख मूंदकर आगे बढ़ाया है और नतीजे मे हमेशा ही हमें नर्क और निगोद का पात्र बनना पड़ा है ! इसीलिए संत कहते हैं सँसार से भागो नही सँसार मे  जागो !

Thursday, 26 April 2012

नजर रखें मंजिल पर अपनी



दो प्रकार की वृत्तियाँ होती हैं ! एक कुत्ते की वृत्ति होती है और एक सिंह की वृत्ति होती है ! दोनों मे बड़ा अन्तर होता है !कुत्ते और सिंह मे बड़ा अन्तर होता है ! कुत्ते को यदि कोई पत्थर मारता है तो वह पत्थर की तरफ लपकता है और जब तक वह उस पत्थर की तरफ लपकता है उसे दो चार पत्थर और पड़ जाते हैं !लेकिन शेर के लिए यदि कोई गोली चलाता है तो शेर बन्दुक की तरफ न देखकर गोली चलाने वाले की तरफ वार करता  है और शेर जीत जाता है ! बस यही अन्तर है ज्ञानी और अज्ञानी मे ! अज्ञानी निमित्त के पीछे भागता है जबकि फैंकने वाला तो हमारे भीतर का कर्म है ! कर्म की तरफ जिसकी दृष्टि नही जाती वह निमित्त की तरफ भागता है तो उस पर दो चार पत्थर और पड़ जाते हैं और वह राग द्वेष कर दो चार कर्म और बाँध लेता है ! लेकिन  सम्यक दृष्टि निमित्तों को दोष कभी नही देता है ! अगर उसके सामने कोई प्रतिकूल निमित्त आता है तो वह उस निमित्त को देख विचलित होने की जगह अपने कर्म की तरफ देखता है और समता के प्रहार से उस कर्म को जड  से काट देता है ! कर्म का ही अन्त कर देता है ! सिंह की तरह अपनी दृष्टि बनाएँ ! निमीत्तोंमुखी होने से बचें ! हम बहुत जल्दी निमित्तों से प्रभावित हो जाते हैं ! किसी ने जरा सी तारीफ़ कर दी तो खिल जाते हैं ! किसी ने टिप्पणी की तो खौल गए ! पल मे खिलना, पल मे खौलना ! ये अज्ञान है ! सम्यक दृष्टि वो होता है जो न तारीफ़ मे प्रसन्न होता है न टिप्पणी मे खिन्न होता है ! ये एक दुर्बलता है !
मुनिश्री 108 प्रमाण सागर जी की पुस्तक "मर्म जीवन का" से

Wednesday, 25 April 2012

आचार्य मानतुंग और उनका समर्पण

 मानतुंग आचार्य ऋषभदेव कि भक्ति स्तुति मे ऐसे खो गए कि उन्हें अपने निज अस्तित्व का भी भान न रहा ! बेडियाँ ऐसे ही नही टूटती ! तादाम्य के बिना तन्मयता के बिना ,तन्मयता और सम्रासी भाव आए बिना बेडियाँ नही टूटती ! जब एकाग्रता आती है ,संकल्प आकार लेता है तब बेडियाँ टूटती हैं !

बादशाह अकबर के दरबार मे तानसेन जब जब संगीत की धुन छेड़ता ,बादशाह का सिर डोलने लग जाता ! जब बादशाह का सिर हिलता तो बहुत सारे लोग सिर हिलाने लगते ! बादशाह संगीत का बडा मर्मज्ञ था इसीलिए सिर हिलाता था ! बहुत लोग उसे देखकर सिर हिलाते थे कि बादशाह सिर हिला रहा है तो हमें भी हिलाना चाहिए ! अन्यथा बादशाह क्या समझेगा ? एक दिन बादशाह के मन मे प्रश्न उभरा -क्या मेरी सभा मे सब संगीत के मर्मज्ञ हैं ? इस प्रश्न का समाधान पाने के लिए उसने दुसरे दिन फरमान जारी कर दिया -तानसेन गायेगा ,उस समय कोई सिर हिलाएगा तो उसका सिर काट दिया जाएगा ! अब कौन सिर हिलाए ? जितने नकली सिर हिलाने वाले थे सब बंद हो गए ! तानसेन ने राग छेड़ा ,और अपनी धुन छेडी और इतना सुन्दर गाया कि बादशाह उसमे डूब गया और उसका सिर हिलने डोलने लगा !जो संगीत के मर्मज्ञ थे उनके सिर भी हिलने लगे !उन्हें संगीत मे डूबकर ये ध्यान ही नही रहा कि उनका सिर कलम कर दिया जाएगा ! जब तन्मयता होती है तब दूसरी बातें याद ही नही रहती हैं !व्यक्ति एकरस बन जाता है ! वस्तुत: संगीत के मर्मज्ञ बहुत कम थे ! चीनी दूध मे इस प्रकार घुल जाती है कि वाह अलग से अपना अस्तित्व कायम नही रखती ! दूध और चीनी एकमेव बन जाते हैं !
आचार्य मानतुंग भी ऋषभ देव कि भक्ति मे तन्मय हो गए ! फिर बेडियाँ और ताले उनका क्या बिगाड़ करते !
भावार्थ है कि हम जो भी कार्य करें सम्पूर्ण समर्पण ,एकाग्रता और तन्मयता के साथ करेंगे तो सफलता निश्चित है !
आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी की पुस्तक "अंतस्तल का स्पर्श " से

Monday, 23 April 2012

उतने पाँव पसारिये जितनी लंबी सोड

व्यक्ति के पास बहुत धन है ! यदि नया धन न आये तो एक दिन वह संचित धन समाप्त हो जाएगा ! नदी मे पानी है ! यदि जल का नया प्रवाह न आए तो नदी एक दिन सुख जाए ! व्यक्ति के पास कितना ही धन व पदार्थ हो ,यदि उसका संवर्धन न हो ,उसका व्यय होता रहे तो वह समाप्त होता चला जाता है ! एक दिन ऐसा आता है कि संपन्न व्यक्ति भी कंगाल हो जाता है !
एक भिखारी सेठ के पास गया ! सेठ भिखारी की दशा देख कर द्रवित हो गया ! उसने जेब मे हाथ डाला , सौ रुपये निकाले और भिखारी को दे दिये ! 
भिखारी ने कहा -सेठ साहब ! भविष्य मे ध्यान रखना ! इतना किसी को मत देना ! 
सेठ  यह सुन कर स्तब्ध रह गया ! सेठ ने सोचा -यह कैसा भिखारी है ? मांगने वाला तो यही चाहता है कि सौ के स्थान पर दो सौ रुपए मिल जाएँ ! यह उलटी बात कर रहा है !
सेठ ने पूछा -भाई ! तुम ऐसा क्यों कह रहे हो ? 
भिखारी ने कहा -सेठ साहब ! मै भी एक दिन तुम्हारे जैसा सेठ था !जो भी मांगने आता ,उदारता से रुपए दे देता ! कोई सौ मांगता ,मै दो सौ दे देता ! इस प्रकार देते देते यह स्थिति बन गई है कि मै आज खुद भिखारी बन गया हूँ ! इसीलिए तुम ध्यान रखना ,इस प्रकार मत देना ,जिससे तुम्हे पश्चाताप करना पड़े ,भिखारी बनने को विवश होना पड़े !
 जहाँ केवल व्यय होता है ,अथवा आय से अधिक व्यय होता है ,वहाँ खजाना लूट जाता है ! धन और पदार्थ का सच यही है !
विद्या ही एक ऐसी वस्तु है जिसका कभी व्यय नही होता ,जितना ज्ञान बांटोगे ,उतना ही ज्ञान बढ़ेगा !
आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी की पुस्तक "अंतस्तल का स्पर्श " से







 

Sunday, 22 April 2012

भक्त के वश मे है भगवान

भक्ति का सूचक शब्द है -"त्वाम" ! किसी बड़े आदमी को "तु " अथवा "तुम" कह दो तो कई लोग बुरा मान लेते हैं ,इसीलिए आप कहना पड़ता है ! आप शब्द मे रस तो नही  है,किन्तु व्यक्ति यह मानकर "आप" शब्द का प्रयोग करता है कि अमुक व्यक्ति बड़ा है ! भगवान भी बड़े हैं ,किन्तु वे भक्त से बड़े नही हैं !
प्रश्न  आया -"बड़ा कौन है ?"
कहा गया -"पृथ्वी बड़ी  है"
"क्या पृथ्वी से बड़ा कोई नही है "
"पृथ्वी   से बड़ा है समुद्र ! पृथ्वी का भाग बहुत छोटा है ,जल का भाग बहुत बड़ा है ! "
"क्या समुद्र से बड़ा कोई नही है ?"
"आकाश समुद्र से बड़ा है "
तर्क आगे बढ़ा -"आकाश  से बड़ा कौन है ?"
"आकाश से बड़ा है भगवान ! उसमे आकाश समाया हुआ है ! "
"क्या भगवान सब से बड़ा है ?"
"नही ,भगवान से बड़ा है भक्त ! भक्त के ह्रदय मे भगवान समा जाते हैं ,इसीलिए भक्त भगवान से भी बड़ा है !
भक्त  बड़ा है ,इसीलिए वह भगवान के लिए "त्वाम" शब्द का प्रयोग कर सकता है ! यदि वह बड़ा नही होता तो उसे "तु" नही कहना पड़ता ! भक्ति इतनी महान होती है कि उसमे "तु" का प्रयोग होता है ! यदि "तु" नही होता तो भक्ति का रस ही समाप्त हो जाएगा ! भक्ति मे जो रस है वो   त्वाम -"तु" कहने मे ही है ! 
आचार्य  मानतुंग जी भक्तामर के 23वे शलोक  मे कहते हैं -
'त्वमामनन्ति मुनय: परमं पुमांस -
मादित्यवर्णममलम तमस: परस्तात '
भक्तामर  के प्रत्येक श्लोक मेआचार्य मानतुंग जी ने प्रभु आदिनाथ के किये 'तु' या 'तुम'शब्द का ही का प्रयोग किया है ! और वही मानतुंग आचार्य अपनी भक्ति से 48 तालों को अपनी भक्ति व श्रद्धा से तोड़ कर बाहर आ जाते हैं ! यह सिद्ध करता है कि "भक्त के वश मे है भगवान "

आचार्य  महाप्रज्ञ जी "अंतस्तल का स्पर्श " मे



 

Saturday, 21 April 2012

नर तन रत्न अमोल

           एक बार इन्द्र के मन मे कौतुहल जाग गया ! चाहे देवता हो या मनुष्य कौतुहल सब के मन मे जगता है !कोई भी कौतुहल से मुक्त नही है ! जब तक मनुष्य वीतराग नही होता ,कौतुहल का भाव नष्ट नही होता ! इन्द्र के मन मे जब कौतुहल जगा तो यह कि मुझे मनुष्यों की परिक्षा करनी चाहिये ! इस चिंतन को कार्यान्वित किया ! रूप बदल कर पृथ्वी पर आ गया ! एक महानगर मे मुख्य बाजार मे सिद्ध योगी के रूप मे बैठ गया ! यह घोषणा करवा दी कि इस नगर मे अद्भुत सिद्ध योगी आया है ! वह किसी भी कुरूप और भद्दी चीज को सुन्दर बना सकता है !लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी ! किसी ने अपना रूप बदलवाया ,किसी ने अपने गहने बदलवाये ! काला गोरा बन गया ! असुंदर सुन्दर बन गया ! अनेक दिन तक यह उपक्रम चलता रहा ! नगर के प्रत्येक नागरिक ने इस दुर्लभ अवसर का लाभ उठाया ! 
         सन्यासी  ने पूछा -क्या नगर मे कोई ऐसा कोई व्यक्ति है ,जिसने अपनी किसी वस्तु मे न बदलाव करवाया हो ? लोगों ने कहा -महात्मन ! नगर मे और कोई तो नही एक सन्यासी ऐसा जरूर बचा है जिसने ऐसा कुछ नही किया ! सिद्ध योगी स्वयं सन्यासी के पास गया ! बस कुछ देर तक सन्यासी को निहारता रहा ,फिर बोला -बाबा ! तुम्हारे पास कुछ नही है ! शरीर भी जर्जर हो चला है ! ऐसा अवसर फिर कब आएगा ? मै कल जा रहा हूँ ! केवल आज का समय है ! कुछ बदलवाना हो तो सोच लीजिए ! एकदम नौजवान बन सकते हो !
          सन्यासी ने मुस्कुराते हुए कहा -महात्मन !मुझे कुछ नही चाहिए ! 
 विस्मत सिद्ध योगी ने कहा -बाबा !क्यों नही चाहिए ?
सन्यासी  बोला -महात्मन ! इस दुनिया मे मनुष्य जीवन से बढ़कर कोई सुन्दर वस्तु नही है ,और वह मेरे पास है ! आत्मसंतुष्टि से बढ़कर कोई आनन्द नही है और वह मेरे पास है ! यह दुर्लभ सौंदर्य और आनन्द मुझे उपलब्ध है ,मुझे और कुछ नही चाहिए !
सिद्ध  योगी यह सुनकर अवाक रह गया !
          जिसे  अशोक मिल जाता है ,पवित्र आभामंडल मिल जाता है ,उसके लिए इससे बढ़कर कुछ भी नही है ,कोई आनन्द नही है ! जहाँ शोक है ,वहाँ समस्या है ! जहाँ अशोक है ,वहाँ कोई समस्या नही है !यह अशोक की     उपलब्धि   पवित्र भामंडल और आभामंडल की सन्निधि मे सहज सम्भव है !
जिस  व्यक्ति को पवित्र आभामंडल मिल जाता है ,उसके लिए कुछ भी पाना शेष नही रहता ! वह ऐसे सौंदर्य को उपलब्ध हो जाता है ,जिसकी काल्पन भी नही की जा सकती !
आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी की पुस्तक "अंतस्तल का स्पर्श " से

Thursday, 19 April 2012

भील और उसकी पत्नी कहीं जा रहे थे ! रास्ते मे श्वेत मोती का हार पड़ा मिल गया ! भील ने कहा -देखो ,रत्नों की माला है ,पहन लो ! भील की पत्नी बोली -"नही चाहिए ऐसी माला ! केवल श्वेत मोती हैं ! इनसे तो अच्छा है मेरे गले मे पडा हुआ गुंगचियों का हार ! लाल और काले रंग का यह हार कितना अच्छा लगता है ! इसके सामने ये मोती कुछ भी नही हैं !
जिसने गुंगचियों के रक्त -श्याम रंग को ही मूल्यवान माना है ,वह कभी महार्ध्य रत्नों का मूल्य नही आँक सकता ! गुणों के मूल्यांकन के लिए जैसी दृष्टि चाहिए ,वह सबको प्राप्त नही होती ! 
जब  किसी के गुणानुवाद का प्रसंग आता है तो मुहँ बंद सा हो जाता है! जब किसी की निंदा का प्रसंग आता है ,अवर्णवाद का प्रंसग आता है  मुहँ विकस्वर बन जाता है ! गुणी के गुणों की पहचान और मुलांकन करने मे सब व्यक्ति कुशल नही होते ! रत्न की पहचान और मूल्यांकन करने के लिए जितना एक जौहरी कर सकता है ,उतना आदिवासी भील नही कर सकता ! एक आदिवासी रत्न को कांच का टुकड़ा मानता है ,उसके लिए उसका मूल्य होता है पांच रुपये ! एक रत्न परीक्षक रत्न को बहुमूल्य मणि और पन्ने के रूप मे देखता है ! और उसके लिए वह एक लाख रूपये का भी हो सकता है और नो लाख या एक करोड का भी हो सकता है !
मुनिश्री  का आशय यह है कि हम गुणों की पूजा करें न कि दिखावे पर जाए और इस नर जन्म को सफल बनाएँ !
आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी की पुस्तक "अंतस्तल का स्पर्श "से

Wednesday, 18 April 2012

गुरु कौन ?

एक राजा के मन मे विकल्प  उठा -मै गुरु बनाऊं ! प्रश्न आया कि गुरु कौन होगा ? राजा ने कहा -गुरु वह होगा !जिसका आश्रम सब से बड़ा है ! घोषणा करवा दी गयी -राजा गुरु बनायेंगे और उनको बनायेंगे जिनका आश्रम सब से बड़ा है ! 
सैंकडो साधु सन्यासी इकट्ठे हो गए ! सब अपने अपने आश्रम का बखान करने लगे ! कोई कहे पांच एकड़ ,कोई पचास एकड़ ,कोई सौ ,दो सौ .पांच सौ .हजार एकड़ ! 
सबने अपना अपना बखान कर दिया हजार एकड़ वाला सबसे बड़ा बन गया ! लोगों ने सोचा-इससे बड़ा आश्रम तो किसी का नही ! यही शायद राजा का गुरु बनेगा !एक सन्यासी ऐसे ही बैठा रहा !कुछ नही बोला ! 
राजा ने कहा -महाराज ! आप भी बताएं ,आपके पास क्या है ?

वह बोला -राजन, मै आपको यहाँ नही बता सकता ! आपको मेरे साथ चलना होगा ! 
राजा साथ हो लिया ! सन्यासी राजा को घने जंगल मे ले गया ! गहरा जंगल !चारों और न कोई मकान न कुछ और ! एक बड़ा बट का वृक्ष था !सन्यासी उसके नीचे जाकर बैठ गया !बोला -यही मेरा आश्रम है राजन !
राजा  ने पूछा -कितना बड़ा है ?
"जितना बड़ा ऊपर आकाश और जितनी नीचे पृथ्वी -इतना बड़ा आश्रम है ,जिसकी कोई सीमा नही है ! "सन्यासी का सटीक उत्तर था !
राजा सन्यासी के चरणों मे गिर पड़ा ! बोला- आप ही मेरे गुरु हो सकते हैं ! मै आपका शिष्य हूँ ! मुझे स्वीकार करें !
गुरु  वह बन सकता है जिसके पास अपना कुछ भी नही है ! एक कौड़ी भी नही है ! एक इंच भूमि भी नही है ! पूर्ण आकिंचन है ! ऐसा व्यक्ति ही गुरु बन सकता है !
जिसने अपना सब कुछ छोड़ दिया ,वह सबका नाथ बन गया ! 
आचार्य श्री महाप्रज्ञ की पुस्तक "अंतस्तल का स्पर्श " से

Tuesday, 17 April 2012

सहसा कोई कम नही करना चाहिये

मृत्यु का समय निकट था ! महाकवि भारवि ने पुत्र से कहा -"मै तुम्हे एक सम्पदा देकर जा रहा हूँ !" पुत्र ने कहा -"वह सम्पदा क्या है ?,कहाँ है ? " भारवि ने एक श्लोक लिखकर देते हुए पुत्र को कहा -"जब भी किसी प्रकार की आर्थिक समस्या या अन्य कोई विपदा आये तो तुम इस श्लोक को एक लाख रुपये मे बेच देना !  उस युग मे नगर मे हाटें लगती थी ! परम्परा थी - हाट मे दिन भर की बिक्री के बाद जो कोई भी वस्तु दुकानदार के पास बच जाती थी ,उसे राज्य द्वारा खरीद लिया जाता  ! भारवि की मृत्यु के बाद उनका पुत्र आर्थिक कठिनाई मे घिर गया !  विपत्ति के उन क्षणों मे  उसने अपने पिता द्वारा दिये हुए उस श्लोक को बेचने का निश्चय किया   ! पिता के आदेशानुसार उस श्लोक को लेकर बाजार मे गया ! उसे एक स्थान पर टांग  दिया !लोग आते ,उस श्लोक को देखते हैं ! भारवि पुत्र उस श्लोक का मूल्य एक लाख रुपये बताता है ! एक लाख मुद्राएं ! एक श्लोक के लिए एक लाख मुद्राएं कौन दे ? उसे लेने वाला कोई नही मिला !संध्या का समय ! उसे लेने वाला कोई नही मिला तो राज परंपरा के अनुसार बची हुई वास्तु के रूप मे वह श्लोक राजा द्वारा खरीद लिया गया ! राजा ने उसे फ्रेम मे मढ़ाया व मढ़ाकर अपने शयन कक्ष की दीवार पर लटका दिया ! कालंतर मे राजा परदेश गया और वहाँ उसे बहुत समय लग गया ! जिस समय वह लौटकर आया तो अपने शयनकक्ष मे घुसते ही मद्धिम रोशनी मे उसे दो दिखा तो वह अवाक रह गया ! रानी एक युवक के साथ सो रही थी ! यह देखते ही राजा क्रोध से भर गया ! दोनों को मारने के लिए उसने तलवार निकाल ली ! जैसे ही उसने वह तलवार निकाली दीवार पर टंगा वह श्लोक राजा के सामने आ गया ! उस पर लिखा था " सहसा विदधीत न क्रियाम्" अर्थात सहसा कोई काम नही करना चाहिए ! श्लोक पढते ही तलवार के साथ उठा राजा का हाथ झूक गया ! उसने रानी को आवाज दी !  रानी जागी ,उसने भाव विहल होकर राजा का स्वागत किया ! राजा के मन मे अभी शल्य बाकी था ! आवेश मे बोला -यह कौन है साथ मे ? रानी बोली -इसे नही पहचान पा रहे हैं ! यह आपकी पुत्री वसुमती है ! आज  नाट्य ग्रह मे राजा का वेष बनाकर अभिनय किया था ! देर से आकर उसी वेष मे मेरे साथ सो गयी !  राजा पुत्री को पुरुष के वेष मे देख कर अवाक रह गया ! बड़े गदगद स्वर मे बोला -"इस श्लोक को एक लाख मे खरीद कर मैंने सोचा था कि कौड़ी की चीज के एक लाख मुद्राएं दे दी ,किन्तु आज लगता है  इसके लिए एक करोड स्वर्ण मुद्राएं भी कम हैं ! एक भयंकर त्रासदी से इस श्लोक ने मुझे आज बचा लिया ! 
संवेग आया ,प्रबल हुआ और तत्काल वो काम कर लिया तो पश्चाताप के सिवा और कुछ नही बचता ! सहसा कोई काम नही करना चाहिए ! सहसा संवेग भी नही होना चाहिए ! 
आचार्य श्री महाप्रज्ञ की पुस्तक "अंतस्तल का स्पर्श " से

Monday, 16 April 2012

गुण ग्रहण का भाव रहे नित

एक व्यापारी ने अनुभवी विद्वान के समक्ष अपनी समस्या प्रस्तुत करते हुए कहा -मेरे पास सब प्रकार के ग्राहक आते हैं ! अच्छे बुरे दोनों तरह के लोग आते हैं ! सही गलत सब प्रकार की बातें सुननी होती हैं ! अनेक बातों को मै सहन नही कर पाता ! अनेक बार मेरा मन बुरी बातों की आकृष्ट हो जाता है ! मै बुराई से कैसे बचूं ? आप कोई उपाय बताइये ! अनुभवी विद्द्वान ने पास रखे कांच के गिलास को उठाया ! उसमे कुछ मिटटी डाली ! वह गिलास व्यापारी को देकर कहा -इस गिलास को ले जाओ ! इसे नल की टोंटी के नीचे रख दो !
व्यापारी ने पूछा - "वहाँ कब तक रखना है "
"जब तक पानी मे से बह कर यह सारी मिटटी निकल न जाए ,केवल स्वच्छ पानी न रह जाए तब तक "
व्यापारी गिलास को लेकर चला गया ! उसने  गिलास को नल की टोंटी के नीचे रख दिया ! ऊपर से पानी गिर रहा था !जैसे जैसे गिलास भरा ,नीचे गयी हुई मिटटी पानी के साथ बाहर आती व बह जाती ! कुछ देर तक यह क्रम चलता रहा ! गिलास मे भरी मिटटी एकदम साफ़ हो गयी ! साफ़ पानी ही शेष रह गया ! व्यापारी स्वच्छ जल से भरा गिलास ले कर विद्द्वान के पास आया और गिलास हाथ मे थमाते हुए कहा -मान्यवर ,अब समझाएं मुझे क्या करना है ! मेरे प्रश्न का उत्तर क्या है ?
विद्द्वान ने कहा -मैंने उत्तर दे दिया है ! 
महाशय ! क्या उत्तर दिया ? कुछ समझा नही ! 
उत्तर यही है कि तुम इतनी स्वच्छता का वरन करो कि तुम्हारे भीतर  जमा हुआ सारा कचरा बाहर निकल जाए !
उसके पश्चात तुम्हारे मन पर गलत बातों का कोई प्रभाव नही होगा ! तुम्हारी गुण ग्रहण की  शक्ति इतनी  मजबूत हो जाएगी कि दोष तुम्हे कभी आक्रान्त नही कर पायेंगे !
आचार्य श्री महाप्रज्ञ की पुस्तक "अंतस्तल का स्पर्श " से

Saturday, 14 April 2012

समय आ गया

             एक व्यक्ति बचपन मे ही गुरु के पास दीक्षित हो गया ! गुरु के पास रहता ,उनकी सेवा भक्ति करता ,जिस कमरे मे गुरु रहते उस कमरे की सफाई करता ! एक दिन वह कमरे की सफाई कर रहा था ! कमरे मे सफाई कर रहा था ! कमरे मे गुरु की प्रिय एक मूर्ति थी ! शिष्य के हाथ से वह मूर्ति नीचे गिरी व टूट गयी ! शिष्य घबरा गया ! उसने सोचा गुरूजी को यह मूर्ति अपने गुरु से मिली थी ! वे गुरु द्वारा प्रदत्त इस मूर्ति की बड़ी महिमा गाते हैं ! इस खंडित मूर्ति को देखकर वो क्या सोचेंगें ? अब मै क्या करूँ ? सहसा एक उपाय उस के दिमाग  मे कौंध गया ! कुछ समय बाद गुरु उस कक्ष मे आये ! शिष्य ने गुरु से प्रणाम कर निवेदन किया -गुरुवर ! एक जिज्ञासा है ,उसका समाधान कराएं !
गुरु बोले -"बोलो ,क्या कहना चाह्ते हो तुम ?
"आदमी मरता क्यों है ? मै इसका कारण जानना चाहता हूँ !" शिष्य ने कहा !
"इसका सीधा उत्तर है -समय आ गया ! जब समय आता है ,आदमी मर जाता है ! "
उसी  समय शिष्य ने वस्त्र मे छिपाई हुई मूर्ति गुरु के सामने रख दी और कहा -गुरुदेव ! यह मूर्ति टूट गयी !"
"अरे ,यह कैसे टूटी ?"
"गुरुदेव ! इसका समय आ गया !"
"समय आ गया ?"
" हाँ ,गुरुदेव !आपने ही कहा था  ,जब समय आता है तो आदमी मर जाता है ,उत्पन्न चीज नष्ट हो जाती है !"
गुरु शिष्य के इस कथन पर मुग्ध हो गए ! गुरु ने कहा !" मूर्ति टूट गयी तो कोई बात नही ,किन्तु जीवन मे तुम इस बात का ध्यान अवश्य रखना ! कभी तुम्हारा कोई प्रिय व्यक्ति मर जाए ,तुम्हे यही सोचना है -समय आ गया ,इसीलिए चला गया ! इसके सिवाय कुछ और नही सोचना है "
शिष्य ने कहा -गुरुदेव ! मेरे लिए यह एक बोधपाठ है ! इसे मै कभी नही भूलूँगा ! 
जब भी कोई घटना घटती ,वास्तु नष्ट हो जाती ,गायब हो जाती वह यही सोचता समय आ गया ! इसीलिए ऐसा हुआ ! 
हरेक घटना एक बोधपाठ दे जाती है ,यदि हम लेना चाहें ! 
महान आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी "अंतस्तल का स्पर्श " मे (एक बार अवश्य पढ़ें )

Friday, 13 April 2012

सामयिक एवं सामयिक काल (समय)

सामयिक  का समय पूर्ण होने तक हिंसादि पाँचों पापों का पूर्ण रूप से त्याग अर्थात मन ,वचन ,काय से त्याग ,कृत कारित ,अनुमोदन से त्याग करने को आगम के ज्ञाता मनुष्य सामयिक कहते हैं !

सँसार मे समस्त कार्य जो भी हैं वो समय के साथ हुआ करते हैं , अन्य समय मे अथक /जी तोड़ परिश्रम करने पर भी जो कार्य नही होता है ,वह समय को पाकर साधारण से प्रयास से संपादित हो जाता है !

सामयिक  का समय :-सूर्योदय से एक घंटा बारह मिनट पहले से प्रारम्भ होकर सूर्योदय के एक घंटा बारह मिनट बाद तक ,सायंकाल मे सूर्यास्त से एक घंटा बारह मिनट पहले से शुरू होकर सूर्यास्त के एक घंटा बारह मिनट बाद तक ,व मध्यान्ह मे 10:48 a.m  to 1:12 p.m तक बताया गया है ! ये उत्कृष्ट सामयिक समय है 2 घंटे 24मिनट
1 घंटा 24 मिनट मध्यम,व  48 मिनट   जघन्य काल मना गया है !
 पद्मासन ,सुखासन या सिद्धासन मे पूर्व या उत्तर दिशा मे मुहँ करके डाभ के आसन पर( न ज्यादा आरामदायक होता है न कष्टदायक आसन ) ऐसे स्थान पर सामयिक करें जहाँ अत्यंत शीत या उष्ण न  हो , छोटे बड़े जीव जंतु  न हों ,डांस मच्छर आदि न हों जिस से चित्त मे आकुलता व्याकुलता न रहे !
आचार्य श्री ज्ञान सागर जी /आचार्य श्री विद्या सागर जी
 

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Thursday, 12 April 2012

सर्वथा तजने योग्य पदार्थ

               जो अपनी इन्द्रियों को पूरी तोर पर वश मे रखने वाले हैं ,उन्हें जिन कहते हैं ! जिन ही देव हैं ,पूज्य हैं आराध्य हैं ! जिन के ऐसे अनुयायीओं को जैन कहते हैं अत: जिन भगवान का अनुकरण करने वाले जनों को ,शरण ग्रहण करने वालों को मधु .मांस और मद्द्य का पूर्णतया त्याग करना चाहिये ! सदाचार का पालन करने वालों को भी इनका सर्वथा  त्याग सर्वप्रथम ही कर देना चाहिए ! क्योंकि जिन भगवान का धर्म अहिंसामयी है ! यहाँ हिंसा सम्बंधित कार्य सर्वथा अशुभ निंद्द्य व गलत माने गए हैं ! 
             इनमे से मधु और मांस का भक्षण करने से प्राणियों की हिंसा होती है ही , किन्तु मद्द्य पान करने से अन्य जीवों की हिंसा तो होती ही है ,बल्कि खुद भी मूर्छित हो जाता है जिससे कदाचित स्वयं के प्राणों का भी घात हो जाता है !  
       हमारे यहाँ तो बहुत पहले ही कही गयी और लोकाक्ति भी बन गयी कि “जैसा खाओगे अन्न वैसा बनेगा मन” इसीलिये मांसाहार का सभी को त्याग करना चाहिये ! मांस भक्षण में हिंसा है और हिंसा अधर्म है ! भारतीय परम्परा ‘शाकाहार’ अपनाने कि बात करती है ! मांसाहार अनेक रोगों का जन्मदाता भी है ! सभी धर्म ग्रंथों में अहिंसा को महत्व देते हुए शाकाहार अपनाने की बात की गयी है !
          मनुष्य की शारीरिक संरचना भी मांसाहार के अनुकूल नही है ! मनुष्य के दांत ,आँत ,नाख़ून ,जीभ आदि सभी शाकाहारी प्राणियों की तरह ही है !कोई भी मनुष्य पूर्णत: मांसाहार पर नही रह सकता ! जबकि मांसाहारी प्राणियों के जीवन का मूल आधार मांस ही रहता  है ! मांसाहारियों के दाँत तीक्ष्ण ,आंते छोटी एवं नाख़ून पैने होते हैं ,जबकि शाकाहारियों की आँत लंबी होती है ! मांसाहार आंतों के कैंसर का प्रमुख कारण है !
          मांस की तरह अंडा भी मांसाहार के ही अंतर्गत आता है ! यह सिद्ध हो चूका है कि कोई अंडा शाकाहारी नही है !अंडे को शाकाहारी निरुपित करना अहिंसक संस्कृति के साथ एक मजाक है !क्या कोई अंडा पेड पर उगता है ? क्या साग सब्जी कि तरह अंडे को खेतों में उगाया जा सकता है ? अंडा भी शाकाहारी नही है वह तो मुर्गी के जिगर का टुकड़ा है !
          वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि अंडा ,मांस और मछली सभी हमारे स्वास्थ्य के लिये घातक हैं !
           मनुस्मृति के रचयिता मनु स्वामी ने  छटवें अध्याय मे स्पष्ट रूप से मधु सेवन को वर्जित कहा है और इसका निषेध किया है !
   यह लेख विभिन्न आचार्यों के धर्म ग्रंथों व पुस्तकों से लिए गए अंशों से बना है !

Wednesday, 11 April 2012

तृष्णा न पूरी हुई डोली पे चढ़ते देखे

               एक शिकारी ने वन मे जाकर अपने धनुर्बाण से एक हिरण को मारा ! उसी समय एक काले सर्प ने उसे डस लिया ,जिसके डसने से वह शिकारी बेसुध होकर गिर पड़ा ! उसके नीचे दब जाने के कारण वह सर्प मृत्यु को प्राप्त हो गया और जहर चढने के कारण शिकारी मृत्यु को प्राप्त हो गया ! अपनी अपनी करनी का फल दोनों को प्राप्त हो गया ! तभी वहाँ से एक भेडिया निकला व सोचने लगा - आज का दिन कितना अच्छा है ,एक ही साथ हिरण ,सर्प और मनुष्य तीनों का मांस खाने को मिलेगा ! अब तो कई दिन का गुजारा आराम से चलेगा ! अत: आज तो पहला दिन है ,आज इस धनुष की प्रत्यंचा की तांत से ही भक्षण कर के शुरुआत करता हूँ ! ऐसा विचार कर वह तांत को भक्षण करने लगा ,तभी धनुष का बाँस उसके मुख मुख  मे लग जाने से वह मरण को प्राप्त हो गया !यह सब अति लोभ का ही दुष्फल था ! 
             अत: सुख शान्ति चाहने वालों को लोभ ,लालच तृष्णा से दूर रहना चाहिये और संतोष को धारण करना चाहिये !

Tuesday, 10 April 2012

निन्यानवे का चक्कर

          एक सेठ के यहाँ कारों का व्यवसाय था जिसके चक्कर मे वह  बड़ा व्यस्त रहता था !सुबह का समय हो या शाम उसे अपने व अपने परिवार के लिए कभी समय नही था ! देर रात्रि मे ही वह बिस्तर पर जाता और थका- मांदा पड़कर सो जाता और सुबह को फिर वही क्रम चलना शुरू हो जाता था ! 
           एक  दिन उसकी पत्नी ने उसे कहा कि आप क्यों इतना व्यस्त रहते हैं कि इतना सब कुछ होते हुए भी आपके पास घर परिवार बच्चों व मित्रों के लिए कोई समय नही ! हर समय व्यवसाय की उलझनों मे उलझे रहते हैं ! हमसे तो अच्छा हमारा यह पडोसी है जो मेहनत मजदूरी करके अपने परिवार का पेट पालता है ,सुबह को 9 बजे घर से निकलता है व शाम को 6 बजे तक वापस घर आ जाता है ,उसके बाद भोजन आदि से निवृत होकर पति -पत्नी दोनों वीणा व सितार बजाते हुए भगवत भक्ति मे लीन हो जाते हैं व रात्रि को दस बजे तक भगवन के भजन मे मग्न हो रहते हैं !मैंने भी काफी बार उनका भजन कीर्तन सुना है व आनन्द का अनुभव किया है !
सेठ से उसका यह सुख देखा नही गया ,फिर क्या था ! किसी तरीके से नौकर के हाथों एक कम सौ रूपये यानि निन्यानवे रूपये की भरी थैली उसके यहाँ रखवा दी ! वह रूपये देख कर बड़ा खुश हुआ व उसने उन्हें भगवन का प्रशाद समझ कर  अपने पास रख लिया ! उसने गिना तो उन्हें निन्यानवे रूपये पाया और सौ करने की चाह मे अब वह सब भूल गया ! एक दो घंटे घर देरी से आने लगा ,एक रुपया रोज कमाता था और उसी मे मग्न हो कर अपना गुजारा करता था लेकिन अब उसे उन रुपयों को सौ मे बदलना था ! भगवन का भजन कीर्तन अब उसके लिए स्वप्न की बात रह गयी ! निन्यानवे के फेर मे जो उलझ गया था !

           क्या इन्सान की जिन्दगी आज यही होकर नही रह गयी ! घर परिवार के लिए समय नही ! मित्रों के लिए समय नही !और तो और भगवन भक्ति के लिए भी कुछ मिनटों का समय नही ! 

         शिक्षा ये है कि मनुष्य से क्यों दुसरे का सुख भी नही देखा जाता !  क्यों इन्सान आज इतना स्वार्थी होता जा रहा है कि उसे दुसरे को दुखी करने के लिए चाहे अपना नुक्सान भी करना पड़े तो वह तैयार है !

Monday, 9 April 2012

कर्म का लेख मिटे न रे भाई

         एक बार एक राजा सफर को निकले और घुमते हुए जंगलमे भटक गए ! बहुत चक्कर लगाते हुए व भटकते हुए काफी समय बाद वह वापस राजमहल पहुंचे ! स्नानादि करने के बाद भोजन प्रारम्भ ही करने वाले थे कि एक बन्दर कहीं से दैवगत्या संयोग से अचानक आया और सारा भोजन खराब कर गया ! तब उस समय के लिए राजा साहेब फिर भूखे रह गए ! वे सोचने लगे कि आखिर आज सवेरेसे ऐसा क्यों हो रहा है , किस का मुहं देख लिया ! कुछ समय बाद सोचने पर उन्हें याद आया कि अमुक कंजूस का मुहं देख लिया था ,सुबह महल से निकलते हुए ! उसे बुलाया गया और जल्लाद के लिए आदेश हुआ -इसे शूली की सजा दी जाए ! 
              कंजूस था ,तो चतुर तो था ही ! बोला - राजन मुझ से ऐसी कौन सी भूल हो गयी जो कि मुझे शूली की सजा दी जा रही है ! राजा ने कहा - आज सुबह होते ही तेरा मुहं देखा था जिससे मुझे अभी तक भोजन भी नसीब नही हुआ है ! यदि तुम्हे जीवित रखा गया तो औरों को भी तुम परेशान करते रहोगे ! 
                 कंजूस ने साहस  बटोरकर कहा -राजन जी ,मैंने भी आज सुबह सवेरे पहले पहल आपका ही मुहँ देखा था  जिससे कि मुझे मृत्यु दण्ड मिल रहा  है! अब आप ही बताइये कि आपको  कौन सा दण्ड भोगना पड़ेगा ! यह सुनकर राजा को अपनी गलती का अहसास हुआ व उसे तुरंत प्राण दण्ड से मुक्त कर दिया गया !
शिक्षा  ये है कि जो कुछ भी हो रहा है वह सब जीव के पूर्व मे किये हुए कर्मों के अधीन है !

Tuesday, 3 April 2012

अष्ट मद


अष्ट मद
ज्ञानवान हूँ ,ऋद्धिमान हूँ ,उच्च जाति कुलवान तथा !
पूज्य प्रतिष्ठा रूपवान हूँ , तपधारी बलवान तथा !
मन मे आविर्भावमान हो ,इन आठों  का आश्रय ले !
नही रहा “मद” निर्मद कहते जिनवर जिसका आश्रय ले !!

ज्ञान ,पूजा ,कूल जाति ,बल, ऋद्धि,तप और शरीर इन आठ बातों का आश्रय कर अभिमान करने को गर्व रहित आचार्य मद कहते हैं ! प्राय: प्रत्येक ही व्यक्ति अपने आपकी बुद्धिमत्ता ,अपनी कद्र ,अपना वंश , अपनी कौम ,ताकत ,धन दौलत ,अपनी तपस्या चलन और अपने शरीर के सुडौलपने को लेकर घमंड प्रकट किया करते हैं ! भले ही कोई पढ़ा ,लिखा हो या कि अनपढ़ भी क्यों न हो ,अपने को बड़ा होशियार समझता है !
अभिमान युक्त चित्त वाला जो व्यक्ति मद से अन्य धर्मात्मा जनों का तिरस्कार करता है ,वह अपने ही धर्म का अपमान करता है ,क्योंकि धार्मिक जनों के बिना धर्म निराश्रित नही रह सकता है !
अभिमानी  व्यक्ति अपने अभिमान मे आकर कर्तव्य शील इतर सभ्य मनुष्यों का अपमान करता है ! परन्तु उसे यह सोचना चाहिये कि वह उनका निरादर नही करता ,अपितु उनके बहाने से अपने आपके धर्म का निरादर कर रहा है ! अपने कर्तव्य से च्युत हो रहा है क्योंकि धर्म धर्मात्माओं को छोड़ स्वतंत्र नही होता !
क्रोध, मान ,माया ,लोभ  ये चार दुर्गुण कम या ज्यादा मात्रा मे हर मनुष्य के अंदर होते हैं ! आम आदमी क्रोध को सबसे बुरा मानता है ! लेकिन यह देखना   यह  है कि यह आता क्यों है ! जब हमारे मान या अभिमान पर चोट लगती है ,तब क्रोध का आगमन होता है !
अभिमान खास तोर पर मनुष्यों मे ,क्रोध नारकी मे ,मायाचारी पशुओं मे और लोभ का देवों मे बाहुल्य होता है !  मान मनुष्य को जकड़े रहता है ,जिसकी वजह से मनुष्य अंधा हो जाता है ! अत: मनुष्य को चाहिए सबसे पहले इसके ऊपर विजय प्राप्त करे क्योंकि इसको जीते बिना और सभी प्रयत्न व्यर्थ हैं और इस एक बुरी आदत के जीत लेने पर हर बातों मे सहज सफलता प्राप्त हो जाती है ! 
मूल रचना  :    "रत्न करंड  श्रावकाचार "मानव धर्म  आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी 
 हिन्दी व पद अनुवाद : आचार्य श्री ज्ञान सागर जी व आचार्य श्री विद्या सागर जी