यह मन तृष्णा का मित्र है ,वासना का सहचर है ,कुपथ का सखा है , यही मनुष्य को मृग तृष्णा मे भटकाता है ,रूप की छलना मे भरमाता है ,माया के महलों मे अटकाता है ! सारी इन्द्रियाँ जीर्ण शीर्ण हो जाएँ ,परन्तु इस मन की तृष्णा बनी रहती है ,इस तृष्णा का क्षय नही होता ! इसीलिए गुरु कहते हैं ये नर जन्म मिला है ,इसका कुछ उपयोग कर लें हम सब !
बार बार नही मिलन की ,यह मानुष की देह
सन्मति पर मे क्यों रचे ,मुक्ति से कर नेह
मनुष्य गति मे ही तप है ,मनुष्य गति मे ही ध्यान होता है और मोक्ष की प्राप्ति भी मनुष्य गति से ही समभव है !
दुःख से जो बचना चाहे ,ज्ञान चक्षु ले खोल
करनी सम्यक साथ कर ,मन अंदर से बोल
आचार्य108 श्री विद्याभूषण सन्मति सागर जी "मुक्ति पथ की और "मे
सभी मुनि,आर्यिकाओं ,साधु,साध्वियों,श्रावक,श्राविकाओं
को यथोचित नमोस्तु ,वन्दामि , मत्थेण वन्दामि ,जय जिनेन्द्र,नमस्कार
शुभ प्रात:
को यथोचित नमोस्तु ,वन्दामि , मत्थेण वन्दामि ,जय जिनेन्द्र,नमस्कार
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