त्याग का अर्थ है छोडना ! त्याग हमेशा उसका किया जाता है जो अपने लिए हितकारी नही है ! राग और द्वेष ऐसी ही वैभाविक स्तिथियाँ हैं जो आत्मा को संसार मे रोके रखती हैं ! अत: इनका त्याग अपेक्षित है !
आचार्य पूज्यपाद के अनुसार संचय के योग्य ज्ञानादि का दान करना त्याग है ! स्वयं अपना और दूसरे का उपकार करना अनुग्रह है ! ज्ञान देने मे पुण्य का संचय होता है, यह अपना उपकार है और जिसको ज्ञान दिया जाता है ,उसके सम्यक्दर्शन आदि की वृद्धि होती है ! यह पर का उपकार है !
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जब हम शरीर को अलग अलग दृष्टि से देखते हैं ,तो कितना अंतर दीखता है ! जैसे किसी को पैर लगा तो बहुत अनर्थ हो गया ,जब किसी का पैर बढ़ रहा है तो शत्रुता का प्रतीक है ,और उसी व्यक्ति का हाथ बढ़ रहा है तो मैत्री का प्रतीक है !
मुनि श्री 108 सुधासागर जी महाराज "दस धर्म सुधा " मे
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