रविन्द्रनाथ टैगोर को इश्वर की खोज थी !गीतांजलि मे उन्होंने ईश्वर के
गीत गाये और उनके पडोसी ने उनसे पूछा की क्या आपने ईश्वर को कहीं देखा यानि कभी
साक्षत्कार हुआ ! बहुत मुश्किल मे पड़े थे ! उन्होंने अपने संस्मरण मे लिखा कि फिर
मुझे ईश्वर की उतनी लालसा नही थी जितनी उस पडोसी से बचकर रहने की थी ,क्योंकि
उन्होंने मुझे सीधा सीधा पूछ लिया था कि ईश्वर से साक्षात्कार हुआ या नही ? अगर
कोई ईश्वर के बारे मे बात करे और सीधा पूछ ले हमसे कि आप इतनी बातें कर रहे हैं
,देखा है कभी उनको ,तो हम बगलें झाँकने लगेंगें ! हम यहाँ से वहाँ हो जायेंगें कि
देखा वेखा तो नही है ,पर है जरूर वो ,तो
फिर चलो उसकी खोज करें !
रविन्द्रनाथ ने लिखा कि मै खोज पर निकला और मुझे पता चल भी गया कि
फलानी जगह, फलानी बिल्डिंग मे रहता है ! मै पता बिलकुल नक्की करके वहाँ गया और
गाडी से नीचे उतरा और जैसा कहा गया था वैसा ही किया ! अब जब मै सीढियाँ चढ ही रहा
था तो मेरे मन मे विचार आया कि ईश्वर के पास जाने से पहले जरा विचार कर लेना
चाहिये कि जब वो मिलेगा तो उस से क्या बात करेंगें ! और चुपचाप जाना चाहिये !
मैंने जुते उतार लिए और उतार करके हाथ मे
ले लिए –दबे पाँव –सामने जाकर देखा तो नेमप्लेट बिलकुल ठीक लगी थी !ईश्वर यहीं
रहता है ! यहाँ तक तो तय हो गया था ! उसके पास बिलकुल दबे पाँव ही पहुंचा हूँ !
जैसे ही दरवाजा खटखटाने का मन हुआ ,पर हाथ रुक गये कि ईश्वर की खोज मे ,मै अगर लगा
रहूँ तो कम से कम ये अनुभव तो होता है कि ईश्वर है ! लेकिन जिस दिन मै ईश्वर को इस
तरह जीता जागता पा लूँगा ,फिर तो उसकी खबर भी नही लूँगा !
ऐसे कितने ही लोग हैं जिनसे मै परिचित तो हूँ और जिनसे मिल लिया हूँ
और फिर भूल जाता हूँ ,उनको उनसे मिलने के बाद ! अच्छा यही है कि मै ना ही मिलूं और
उसे खोजता ही रहूँ ताकि मुझे ईश्वर का
ध्यान बना रहे !
ईश्वर की खोज मुझे ईश्वर की
याद बनाए रखने मे मदद करती है कि मै उसे खोजता रहूँ और अगर मैंने उसे ऐसे ही पा
लिया और फिर भी संसार मे रहूँ तो फिर मै ईश्वर को भूल जाऊँगा ! ईश्वर को पाने के
बाद फिर सँसार मे रहने की आवश्यकता ही नही !
क्या आज के हमारे जीवन मे यह घटना और ज्यादा प्रासंगिक नही हो रही ,वास्तविकता
नही दिखा रही है ! हम हर रोज नए नए मित्र बनाते हैं ! पुराने मित्रों को भूल जाते
हैं ,किसी से जरा सा मनमुटाव /मतभेद हो जाते ही अपने जीवन से निकाल फैंकने की सोच
लेते हैं ,और कई बार तो इतना दूर हो जाते हैं कि नजदीकी का प्रश्न ही नही रह जाता
! जरा सोचिये और अपने विचार भी दीजिए !
आपने सच कहा,, आजकल हम उन सभी रिश्तो को भूल जाने की सोचने लगते हैं जिनके वजह से हमको तोड़ा सा भी दुख हुआ हो, यही कारण है कि हम नए दोस्त बनाकर पुराने को भूल जाते है, भूल जाते है उनके प्यार को, उनकी हेल्प को ...सर मुझे आपका ब्लॉग बहुत पसंद आया ...
ReplyDeleteजय जिनेन्द्र !!