एक गुरु ने अपने शिष्यों को अध्ययन से परिपूर्ण करने के बाद उनकी
परीक्षा की दृष्टि से बुलाया और कहा कि तुम सब जानते ही हो मेरी बेटी अब जवान हो
गई है ,मुझे उसकी शादी करनी है ! शादी मे दहेज देना है ! मैंने आप सब को अध्ययन
कराया है ,और मै ये भी जानता हूँ कि आप लोग सब संपन्न हो ,इसीलिए अपने अपने घर से
कुछ राशि लाकर दो ,लेकिन एक बात याद रखना राशि ऐसे लाना कि कोई देख न पाए ! कोई
अगर देख लेगा तो वो राशि मेरे लिए स्वीकार्य नही होगी ! सभी शिष्य राशि लेकर के आए
और रुपयों का ढेर लग गया ! पर एक शिष्य ऐसा था जो कुछ भी नही लाया था ! गुरु ने
पूछा कि तुम कुछ नही लाये ? शिष्य ने कहा –नही ! गुरु ने पूछा –क्यों ? तो जबाब
आया कि मुझे कहीं भी एकान्त नही मिला ! गुरु ने कहा कि क्या कोई ऐसा स्थान नही
मिला जहाँ से ला सकते ? तो शिष्य ने कहा कि मैंने खूब एकान्त देखा पर जहाँ भी जाता
तो लगता था कि भले ही कोई न देख रहा हो पर मै स्वयं तो देख ही रहा हूँ और परमात्मा
भी देख रहा है ! जब स्वयं देख रहा हूँ और परमात्मा भी देख रहा है तो कैसे लाता ?
इसीलिए मै लेकर नही आया ! गुरु ने उसे सीने से लगा लिया और कहा कि तुम्हारा अध्ययन
ही सही अध्ययन है !
बंधुओं सारी दुनिया से आँखें चुरा सकते हो पर स्वयं से और परमात्मा से
तो नही बच सकते हो ! दुनिया को धोखा देने वाला फिर भी कभी बच सकता है लेकिन खुद को
धखा देने वाला कभी भी नही बच सकता है !
पुण्य का फल चाह्ते हैं ,पर पुण्य करना नही चाह्ते हैं और पाप का फल
चाह्ते नही पर रात दिन पाप करते हैं ! राम का नाम और रावण का काम ! हम एक तरफ कुछ
और आदर्श व्यक्त कर रहे हैं और दूसरी तरफ आचरण कुछ और कर रहे हैं ! इसका सीधा मतलब
ये है कि हमने जिसे आदर्श के रूप मे स्वीकार किया है उस के वचनों को उस की वाणी को
भी अंतर्मन से स्वीकार करें !
मुनिश्री 108 प्रमाण सागर जी महाराज “मर्म जीवन का” मे
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